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नारी-जीवन
पचास-साठ वर्ष की जीवन-यात्रा में प्रतिदिन ऐसे प्रसंग आते हैं, लेकिन उसे कोई शिकायत नहीं ।
तो, मैं कह रहा हूँ कि पर्युषण-पर्व के लिए जो सन्तोष चाहिए, क्षमा चाहिए, अपने अपमान का सामना करके दूसरों के लिए अर्पण करने की जो वृत्ति चाहिए, वह वृत्ति इन बहिनों में, मैं जिस रूप में देख रहा हूँ, क्या कुछ कम है वह ? मैं सोचता हूँ कि भारतवर्ष की वह संस्कृति न मालूम कहाँ से पहुँच गई । आज भारतवर्ष की नारी अपने आपको भूल गई है और उसको जिस रूप में देखना चाहिए, उस रूप में आज का मानव नहीं देख रहा है उसे । आपके यहाँ विवाह तक भी होते थे. अब भी होते हैं । लेकिन जब भारत की नारी को नापते हैं और तोलते हैं कि दस हजार मिले, बीस हजार मिले, तीस हजार मिल जाए, इतना गहना मिले, इतना सोना मिले, चाँदी मिले । इस रूप में जब नारी को तुलते हुए देखता हूँ, तो मैं समझता हूँ कि संसार में नारी का इससे बढ़कर अपमान कोई नहीं हो सकता । भारत की आत्मा को, नारी की आत्मा को, जो कि लाखों वर्षों से इस समाज की रीढ़ की हड्डी बनकर रही है और जिसने इस समाज को बनाया है और जिसने कि बाल बच्चों के रूप में सारे संसार के लिए एक महत्वपूर्ण और जीवन का सर्वस्व समर्पण किया, जिसने कि संसार को महावीर, बुद्ध, राम और कृष्ण जैसी विभूतियाँ दीं; उस नारी को सोने चाँदी के रूप मे तोलना, रुपए पैसे में तोलना और अगर यह न मिले तो विवाह से इन्कार कर देना; भाग्य से विवाह भी हो गया और जब कभी सम्बन्धियों या पड़ोसियों ने पूछा कि क्या दिया ? तो कहते हैं कि विवाह क्या हुआ गले में फाँसी पड़ गई है । इस प्रकार आप बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं । जैनत्व क्या इसी में है ? पर्युषण पर्व में संसार भर के चौरासी लाख जीवों से, देवताओं, दैत्यों, राक्षसों, नारकियों, जीव-जन्तुओं को क्षमा करने वाले उनसे क्षमा चाहने वालों ! तुम्हारे लोभ, तुम्हारे लालच, तुम्हारी तृष्णा, तुम्हारी भूख का अगर घर में कोई समाधान नहीं कर पा रहे हों और गृह-जीवन बनाने के लिए गृह में जो लक्ष्मी आ रही है, उसको रुपए पैसे से, सोने चाँदी से तोल कर उसका अपमान करते हों, तो मैं समझता हूँ कि इससे बढ़ कर संसार में कोई अत्याचार, कोई अन्याय नहीं हो सकता । यदि आप भारतीय नारी को तोलते हैं, उसकी हड़ियों को. मांस के ढेर को तोलने के लिए जिरः तराजू उठाते हैं, उसके रंग-रूप को तोल रहे हैं,
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