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अतिमुक्तक की मुक्ति
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हम जिस उल्टे टेढ़े रास्ते से गुजर गये वही मार्ग बन गया । यह सिर्फ कवि की मस्ती ही नहीं वास्तविक बात है । झरना जब सर्वप्रथम पहाड़ों से फूटकर प्रवाहित होता है, तो वह पहले से बने बनाए किसी मार्ग से नहीं गुजरता बल्कि नया मार्ग बनाता हुआ आगे बढ़ता है । जब इस धरती पर नदियाँ उतरी तो किसी ने पहले मार्ग बनाकर उन्हें रास्ता नहीं बताया । महापुरुष जब इस संसार में आते हैं तो किन्हीं पिटे पिटाए विचारों और बने बनाए रास्तों पर चलने के लिए नहीं आते, बल्कि नये निर्माण के लिए आते हैं । देश, काल, और परिस्थितियों को देखकर अपने मार्ग का निर्माण करते हैं । इसीलिए तो आगमों में स्थान-स्थान पर मुनि के लिए कहा गया है -
खित्तं कालं च विनाय, तहप्पाणं निउंजए । देश, काल को समझते हुए जीवन-यात्रा को बढ़ाते चलो । ___ आज परम्परावाद और प्रगतिवाद में एक प्रकार का संघर्ष छिड़ रहा है, एक ओर पुराण पंथी परम्परा-प्रिय महाशय परम्परा के नाम पर जो कुछ भी पुराना है उस सब को चलाए रखना चाहते हैं । वे परम्परा का तत्त्व नहीं समझते, उसकी जीवनी शक्ति को नहीं देखते, सिर्फ सिर पर परम्परा का भार रहना चाहिए चाहे वह जीवित हो, या लाश । यही उनका आग्रह है । आज बीसवीं शताब्दी में वे जीते हैं, किन्तु फिर भी उनका आग्रह है कि उनके आचार-विचार तो पहली-दूसरी शताब्दी से ही बंधे रहें । विज्ञान की नई उपलब्धियाँ और नये सत्य को जीवन के अनुरूप पाते हुए भी वे उन्हें स्वीकार करने में संकोच, और शर्म महसूस करते हैं । एक तर्क जहाँ परम्परावाद का आग्रह विग्रह का बीज बन रहा है, वहाँ दूसरी ओर प्रगतिवाद की उच्छृखलता और हठ उस संघर्ष की ओर अधिक भड़का रहा है । जो प्रगतिवाद परम्परा के नाम पर शाश्वत सत्यों की भी अवहेलना करता है, सही मायने में वह प्रगति नहीं, अवनति है । यह आग्रह कि जो कुछ पुराना है तोड़-फोड़ कर गिरा दिया जाय और नया सृजन किया जाय विवेकपूर्ण नहीं है । परम्परा और प्रगति की उलझन का सही हल यही हो सकता है कि जीवन में हम उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य की त्रिवेणी को चरितार्थ करें । जो पुराना है, गल गया है, जिसको दबाए रखने से सडांध पैदा होने का डर है; उसे 'व्यय समाप्त' कर दिया जाय । जिन परम्पराओं से समाज और धर्म को हानि हुई है, उसकी प्रगति रुकी है उनको
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