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पर्युषण-प्रवचन
विस्मित रह गये । वह बाल क्रीड़ा में मस्त व्यस्त जीवन सैकड़ों कवियों की वाणी पर चढ़ चुका है । आज भी लोग गाते हैं
" अयवन्ता मुनिवर नाव तिराई बहता नीर में । "
उसकी और साधना साधारण जन-मन को इतना आकर्षित नहीं कर सकी, जितना नाव तिराने की घटना ने जन-मन को अपनी ओर खींचा है । वह पात्र की नाव नहीं, जीवन की नौका पार कर रहे हैं । संसार के रंगमञ्च पर जीवन का खेल खेल रहे हैं और साधना भी उनके लिए एक खेल है । खेल ही खेल में उनकी आत्मा को एक दिव्य प्रकाश मिला जिससे उनकी यात्रा सरल और सुखद रही ।
उत्तरदायित्व किस पर
महापुरुषों की ये जीवन-गाथायें सिर्फ भारतवर्ष के इतिहास को समृद्ध बनाने के लिए ही नहीं हैं, इनसे हमें प्रेरणा का प्रकाश मिलता है । आज भी सैकड़ों तरुण और बालक हमारे बीच हैं, जिनके शरीर में नया रक्त और जोश झलक रहा है, जो जीवन के मोर्चे पर आने वाले सिपाही के रूप में हमारी और आपकी आँखों के सामने हैं, तो उन्हें भी आप छोटा मत समझिए, उनकी अवज्ञा मत कीजिए । आप उन्हें नासमझ और तुच्छ मत समझिए । आज आप कहते हैं कि इन युवकों में धर्म की लगन नहीं है तो इसका उत्तरदायित्व उन पर नहीं है बल्कि उन लोगों पर है जो धर्म के ठेकेदार बन बैठे हैं । ठेकेदार तो बन गये हैं, पर धर्म के वास्तविक रहस्य से शून्य हैं, जो केवल बाह्य क्रिया काण्डों में ही उलझे रहते हैं, उनके अन्तर्जीवन में जीवन का तेज नहीं है, धर्म की जलती हुई मशाल बुझ रही है पर उस धर्म की और अपने जीवन की मशाल में वे तेल नहीं डाल रहे हैं, नये प्रकाश के अभाव में वह मशाल जल कर ठूंठ मात्र रह गई है । ये ठेकेदार उसी को धर्म का प्रकाश और आस्तिकपन कह कर अपने आपको भी धोखे में डाल रहे हैं और इन बालकों को भी भला-बुरा कह रहे हैं । नौजवान सोचते हैं कि ये धर्मात्मा गिने जाने वाले लोग क्या कर रहे हैं ? ये अपने दैनिक व्यवहार में— जीवन में कहाँ तक धर्म का पालन करते हैं ? यह नया रक्त हर चीज को आलोचना की कसौटी पर देखना चाहता है । वह धर्म को ढकोसले के रूप में, बुझी हुई मशाल के ठूंठ के रूप में देखना नहीं चाहता और इसीलिए आलोचना करता है । जब आलोचना करता है
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