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अतिमुक्त कुमार
लौटता । क्या मेरी माँ इनकी इच्छा पूरी नहीं करेगी, अवश्य करेगी । उसे यह विश्वास इसलिए था कि वह प्रतिदिन अपने घर में उदारता के दर्शन करता था । जब परिवार उच्च संस्कारी है तो बच्चा सुसंस्कृत अवश्य होगा । अगर घर में माता-पिता के विचार इतने ऊँचे न हों, वे किसी को दान न देते हों, किसी की मदद करने को आतुर न रहते हों, तो बच्चा कभी यह हिम्मत नहीं कर सकता कि चलो, मैं तुम्हारा काम करवा दूँगा, अपने पिता से या माता से ।
अतिमुक्त सहज भाव से गौतम की अंगुली पकड़ कर उन्हें अपने घर ले जाता है तो माता हर्ष से गद्-गद हो उठती है और कहती है — " पुत्र ! तुम बड़े भाग्यशाली हो, जो तुम तरण तारण का जहाज हमारे घर लेकर आये हो ।" आज उसकी माता प्रसन्न है कि एक महापुरुष ने इस घर को पावन किया है । माता पुत्र से कहती है कि आज तूने बड़ा महत्त्वपूर्ण काम किया है, इसके मुकाबले में संसार का बड़े से बड़ा काम भी कोई महत्त्व नहीं रखता । दूसरे कार्यों से मिलने वाला आनन्द क्षणिक है पर यह तो सर्वश्रेष्ठ और चिरस्थायी आनन्द का काम है । इस प्रकार के संस्कारों का जीवन हम व्यतीत करें तो हमारे ये छोटे-छोटे बच्चे भी जीवन की इन्हीं महत्त्वपूर्ण ऊँचाइयों को प्राप्त कर सकते हैं ।
साधना के पथ पर
गौतम भिक्षा लेकर मुड़े तो अतिमुक्त ने पूछा
“भगवन् ! अब कहाँ जा रहे हैं आप ?" गौतम ने कहा - " मैं अपने गुरु श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में जा रहा हूँ ।" बालक ने आश्चर्य के स्वर में कहा—“ओह ? आपके भी गुरु हैं ? कितने महान होंगे आपके गुरु ? क्या मैं भी आपके साथ उस दिव्य ज्योति के दर्शन करने चलूँ ?” गौतम ने कहा - 'जहासुहं' जैसा सुख हो । और वह बालक अपने मन में नई उमंग, नई आशा, भव्य अभिलाषा लिए हुए गौतम के साथ भगवान की सेवा में जा पहुँचा । भगवान का उपदेश सुन कर उसने उस दिव्य ज्योति के चरणों में अपने आपको सदा के लिए अर्पित कर दिया । माता-पिता एवं परिवार जनों ने लाख-लाख प्रयत्न किए उसे समझाने के परन्तु वह तो पहले ही भली-भाँति समझ चुका था, वे उसे क्या समझाते ? उस छोटे से बालक के मुख से आत्म-ज्ञान की रहस्य भरी बातें सुन कर सभी
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