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अतिमुक्तक की मुक्ति
बचपन का वैराग्य संस्कार प्रधान होता है, भले ही उसमें ज्ञान की मात्रा उतनी प्रबल नहीं, किन्तु संस्कार उसके अवश्य ही प्रबल होते हैं, एक दृष्टि से उसे संस्कार जन्य वैराग्य कह सकते हैं । अतिमुक्त मुनि जी उन्हीं संस्कारी वैरागियों में था, ज्ञानार्जन तो अभी उसने प्रारम्भ ही किया था । एक बार वर्षा के समय अतिमुक्तक मुनि स्थविर मुनियों के साथ शौच के लिए गया, और जल्दी ही निपट कर लौट आया, पास ही में पानी का प्रवाह चल रहा था, बाल स्वभाव के कारण मन में चंचलता आ गई और पानी को एक मिट्टी की पाल से बाँधकर पानी में अपना पात्र नाव की तरह तैराने ले गया । जब स्थविर मुनि लौट कर आये तो उसने ताली बजाकर हँसते हुए उनसे नाव को देखने के लिए आग्रह किया, स्थविर मुनियों ने यह देखा तो बड़े क्षुब्ध हुए, बोले- अज्ञान ! तू यह क्या कर रहा है ? असंख्य जीवों की हत्या कर रहा है ? वह डर कर झोली में पात्र रख कर चलने लगा, पीछे से स्थविर मुनि उसे कुछ कड़े व व्यंग्य भरे वचन कहते हुए आ रहे हैं, अतिमुक्तक मुनि स्थविरों के वचन सुनकर व्याकुल नहीं हुआ, सोचा वास्तव में मेरी गलती हुई है, वह अपनी भूलों पर पश्चात्ताप भी कर रहा था । स्थविर भगवान महावीर के निकट में आये । भगवान ने तो अपने ज्ञान - बल से सब कुछ जान ही लिया था, भगवान बोले- आप लोग तनिक में गड़बड़ा गये ? आप को मालूम है । इस बालक की आत्मा कितनी जागृत है, यह इसी जन्म में मोक्ष जाने वाला है । उसने भूल जरूर की है पर उसकी निन्दा या उपहास नहीं करना चाहिए, शिक्षा में किसी की अवहेलना या आत्मा को कुचलना ठीक नहीं है, उसे जागृत करना चाहिए, प्रेम से मार्ग दिखाना चाहिए ।
स्थविर मुनियों ने जब यह बात सुनी तो उनका हृदय गद्-गद हो गया, अतिमुक्तक कुमार को कोसने और उस पर रोष प्रकट करने के लिए स्थविर मुनियों ने पश्चात्ताप और आलोचना की ।
अतिमुक्तक मुनि अब महावीर के निकट में ज्ञान यज्ञ में जुट गया, मुनि जीवन की साधना की यह त्रिवेणी है— ज्ञान, सेवा और तपस्या । जब तक साधक इस त्रिवेणी में स्नान नहीं कर लेता, मुक्त नहीं हो पाता । अतिमुक्तक ने ज्ञानाराधना में सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, फिर स्थविरों की सेवा में लगा तो खूब ही लगा, तन मन अर्पण करके सेवा कार्य में जुट पड़ा, फिर अन्त में तपस्या की अग्नि
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