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पर्युषण-प्रवचन
होने पर क्षमा नहीं किया । महाभारत के युद्ध में अर्जुन, भीम आदि पांडवों को भी कर्तव्य पालन न करने पर बार-बार श्रीकृष्ण की ललकार सहनी पड़ती है । सच तो यह है कि उनका सुदर्शन कर्तव्य पालन करवाने के लिए निरन्तर घूमता रहा । प्रेम और स्नेह के मधुर वातावरण का निर्माण करने में भी श्रीकृष्ण बहुत तत्पर थे । वे चारों ओर अपने स्नेह और वात्सल्य का रंग बिखेरे रहते थे और यही कारण है कि साधारण से साधारण आदमी की भी इन तक पहुँच थी । बच्चों और ग्वालों में भी वे घुलमिल जाते थे । उनके रहन-सहन से ऐसा भान नहीं होता था कि वे एक विशाल साम्राज्य और महान यादव जाति से सम्बन्ध रखते हैं । नम्रता की मूर्ति
उनकी नम्रता अद्भुत थी । वे ग्वाल-वालों के साथ, इतने विनम्र हो जाते थे, मानों स्वयं भी एक साधारण ग्वाले ही हैं । वे स्वयं को गोप कहने में बड़ा आनन्द महसूस करते थे । आज के शासकों और पूँजीपतियों की तरह वे जन-साधारण से अलग रहना और किसी भी काम को छोटा मानना नहीं जानते थे । इसका सबसे बड़ा प्रमाण आचार्य संदिपन के आश्रम में उनका रहन-सहन था । श्रीकृष्ण आचार्य के पास उसी तरह रहते थे, जैसे दूसरे सब बालक । वे सभी तरह के काम भी करते थे । आश्रम में झाडू देना, पानी भरना, समिधा एकत्रित करना आदि सभी कामों में बिना किसी ननुनच के निरत रहते थे । सुदामा जैसे दरिद्र ब्राह्मण कुमारों के साथ एक आसन पर बैठकर वे पढ़ते थे । इतना ही नहीं, बल्कि श्रीकृष्ण के किसी भी आचरण से ऐसा भान तक नहीं होता था कि दूसरे विद्यार्थी गरीब हैं और वे अमीर हैं । कितनी बड़ी महानता थी उनमें । यही महानता और नम्रता उनमें अन्त तक बनी रही । उन्होंने यज्ञ में झूठी पत्तलें भी उठाई और युद्ध में अर्जुन के सारथी होने का भी काम किया । उनकी दृष्टि में कोई भी काम छोटा और बड़ा नहीं था । सच तो यह है कि काम कभी छोटा-बड़ा होता भी नहीं है । कर्तव्य-पालन ही सबसे बड़ा काम है । इसीलिए उन पर कवियों ने काव्य रचे । गोपियों ने प्रेम किया और भक्तों ने पूजा की । महाकवि माघ ने कहा कि वे हिमालय की भाँति ऊँचे और सागर की तरह गंभीर थे ।
ऊँचाई और गहराई आपस में विरोधी चीज हैं । ऊँचाई हिमालय
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