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पर्युषण-प्रवचन
भी हिम्मत का काम है, उसमें भी साहस होना चाहिए । कुछ साधक अन्दर ही अन्दर रोते हैं, पाप-वासना में घूमते रहते हैं, छुप कर दुराचार का सेवन करते हैं, कमजोरियों का पोषण करते हैं, परन्तु पुनः गृहस्थ-जीवन में लौट नहीं पाते । परम्पराओं के कुछ ऐसे दृढ़ बन्धन हैं, जिससे वे उस ओर मुड़ने का साहस नहीं कर पाते । इस तरह वे अपने आपको धोखा देते हैं, पतन के गर्त में गिराते हैं और समाज, संघ एवं धर्म को भी लजाते हैं ।
अस्तु, हमने जो प्रतिज्ञाएँ स्वीकार की हैं, चाहे वे साधु-धर्म की हों या श्रावक धर्म की हों, छोटी प्रतिज्ञा हो, तप, नियम, व्रत जो भी स्वीकार किया है उस पथ पर दृढ़ता के साथ गति-प्रगति करें । यदि साधना के पथ पर चलते हुए दुःख आ जाए, कष्ट आ जाए, आपत्ति आ जाए तो उस समय मन में क्षमा-श्रमण गज सुकुमार का चिन्तन करो । यदि निष्ठापूर्वक उसे याद करोगे और धैर्य, साहस एवं सहिष्णुता के साथ अपने पथ पर खड़े रहोगे, अपनी प्रतिज्ञा पर खड़े रहोगे तो तुम्हारे अन्दर आलोक का प्रभास्वर चमक उठेगा । तुम्हारी संकल्प शक्ति दृढ़ रही तो तुम्हारा पथ प्रशस्त बनेगा, विपत्ति संपत्ति के रूप में परिवर्तित होकर रहेगी । हाँ, एक बात अवश्य है कि विकारों पर विजय पाने के लिए, कष्टों को सहने के लिए किसी अच्छे वार या शुभ-मुहूर्त की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता है
आत्मशक्ति जो जागृत करने की । संकल्प बल को दृढ़ बनाने की और निर्भय तथा निर्द्वन्द्व बनकर साधना पथ पर चलने की । यदि आप उल्लास के साथ अपने मार्ग पर सतत गतिशील हैं, तो भले ही शनिवार हो या कोई अशुभ वार हो, खराब मुहूर्त हो, क्रूर गृह नक्षत्र हो, आपका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता । धर्म-निष्ठा
वस्तुतः मानव मन की दुर्बलताएँ ही मानव को पथ-भ्रष्ट बनाती हैं सबल आत्मा के लिए कहीं दुःख नहीं, पीड़ा नहीं, वेदना नहीं । मानस में यदि धर्म के प्रति अनन्य निष्ठा है तो दुःख में भी दुःख की अनुभूति नहीं होती । आज का साधक क्यों बड़बड़ाता है, जीवन की पगडंडियों पर एक दो काँटे भी चुभ जाते हैं तो क्यों चौंक उठता है ? जरा-जरा सी बात पर भाई-भाई में, समाज एवं संघ में संघर्ष क्यों होता है ? इसका अर्थ है कि गज सुकुमार जैसी प्राण-निष्ठा, क्षमा धर्म के प्रति निष्ठा जागृत नहीं हुई ।
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