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पर्युषण-प्रवचन
ग्यारह गणधर भी जाते हैं पर वे भी भगवान के समीप दीक्षित हो जाते हैं, लौटता कोई नहीं । इसे कहते हैं धर्म-निष्ठा, ज्ञान की सच्ची भूख और प्यास । यह सच्ची प्यास अन्तर में जागृत हो जाए तो काम बने ।
उत्तर प्रदेश में एक कहानी प्रचलित है । एक बार सान्ध्य - वेला में सारे पतंगे इकट्ठे हो गए, गाँव के बाहर । उनमें बातचीत हुई या नहीं, यह तो कौन कह सकता है । हुआ क्या ? पतंगों के बीच कहीं से पतंगों के समान पंख वाले दो चार कीड़े भी आ घुसे । उन्हें देखकर पतंगों में फुसफुस शुरू हो गई । कहने लगे कि ये तो पतंगे मालूम नहीं होते । जब पतंगे नहीं हैं तो पतंगों की सभा में आकर बैठने का इन्हें क्या अधिकार है ? आखिरकार सभापति तक वह समस्या पहुँची । सभापति ने आवाज लगाई और कहा कि अब रात हो गई है, अतः जरा गाँव में चलकर देखना चाहिए कि दीपक जले या नहीं ? सर्वप्रथम उन कीड़ों से कहा गया जो पतंगों के रूप में आ बैठे थे । सभापति बोला- “ जरा जाओ तो सही, पता लगाकर आओ कि दीपक जले या नहीं ?” वे कीड़े गए और जलते हुए दीपक देखकर लौट आए । सभा को सूचना दी कि दीपक जल गए । पूछा सभापति ने " दीपक जल गए ? और तुम पतंगे हो ?" "हाँ" उत्तर मिला ।
दीपक जल जाए और पतंगा प्रज्वलित दीपक को देखकर लौट आए ? और फिर वह पतंगा होने का दावा करे ? गलत बात है, तुम पतंगे नहीं हो ।
कीड़ों ने कहा- "नहीं साहब ! दीपक जल रहा था, हम देखकर आए हैं, सचमुच जल रहा था । "
" देखा है तुमने जलते हुए दीपों को ?" "जी देखा है, अच्छी तरह देखा है ।"
" और तुम देखकर आ गए हो, इसलिए तुम्हारी परिभाषा यह कहती है कि तुम सच्चे पतंगे नहीं हो । दीपक जल रहा है, ज्योति जल रही है, मैदान में पतंगों की भीड़ लग रही है, पर क्या पतंगा प्रकाश को देखकर लौट आएगा ? नहीं, वह तो जल पड़ेगा उस पर, प्राण न्योछावर कर देगा, अपना अंग-अंग उस पर जला देगा, मौत का आलिंगन करने को कटिबद्ध होकर भी अपने को होम देगा उस दीपक पर, किन्तु वह लौट कर आ नहीं सकता । तुम लौट आए हो, पतंगे हो तुम ।
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