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पर्युषण-प्रवचन
प्रेम था । इसलिए राक्षस ने गाय का बाना पहनकर अपनी मनमानी करने का तय किया । श्रीकृष्ण ने अनन्त धैर्य के साथ वस्तुस्थिति को समझा और उसका वध कर डाला । जो व्यक्ति इस प्रकार धर्म का रूप धरकर आने वाले अधर्म के साथ लड़ता है, वही महान् कहलाता है ।
__ इसी तरह का एक रूपक और भी आता है यमल और अर्जुन दो यक्ष दो वृक्षों के रूप में खड़े थे । श्रीकृष्ण ने उनका नाश किया । साधारणतः वृक्ष को उखाड़ देना कोई बड़ी चीज नहीं है, पर इस रूपक में एक गहरा आशय है । बात यह है कि इस संसार में एक ऐसा मायाजाल फैला हुआ है कि जिसमें सम्पूर्ण मानव जाति उलझी हुई है । उस मायाजाल को तोड़ सकना कठिन मालूम देता है । पर जब तक यमलार्जुन को उखाड़ा नहीं जायगा, तब तक कोई भी साधक मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकेगा । नाम और रूप नाम के ये दो राक्षस हैं । जिन्होंने सारी सृष्टि को अपने वश में कर रखा है । कुछ लोग अपने नाम और यश के लिए परेशान हैं तो कुछ लोग रूप और सौन्दर्य के लिए परेशान हैं । इस परेशानी को मिटाने के लिए
और मानवीय सद्गुणों का विकास करने के लिए नाम और रूप जैसे दो वृक्षों को उखाड़कर फेंकना होगा । जड़ परम्पराओं के उत्थापक
श्रीकृष्ण लम्बे समय से चली आ रही जड़ परम्पराओं को तोड़कर आगे आए, यही उनकी महानता थी । उन्होंने किसी चीज को इसलिए स्वीकार नहीं किया कि वह परम्परा से चली आ रही है । उन्होंने हर परम्परा का औचित्य और अनौचित्य की कसौटी पर परीक्षण किया । जो लाभदायक परम्परा थी, उसे रखा और जो अलाभदायक थी, उसे तोड़ फेंका । यदि जरूरत पड़ी तो उन परम्पराओं को तोड़ने के लिए समाज के साथ संघर्ष भी किया । इसका एक ज्वलंत उदाहरण श्रीकृष्ण द्वारा यज्ञों का विरोध करना है । जिस तरह महावीर और बुद्ध ने यज्ञों का विरोध किया, उसी तरह श्रीकृष्ण ने भी विवेकहीनतापूर्वक किए जाने वाले यज्ञों का विरोध किया । जब जरासंध ने नर-मेध-यज्ञ करने का आयोजन किया तो श्रीकृष्ण युधिष्ठिर की राज्य सभा में गए और वहाँ यह प्रश्न उठाया कि जरासंध नर-मेध-यज्ञ करने जा रहा है और उस यज्ञ में उन सभी राजाओं का बलिदान कर दिया जायगा, जो जरासंध की जेल में बन्द है । हमारा यह कर्तव्य है कि हम इस अमानवीय
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