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कर्मयोगी श्रीकृष्ण
वह घोर नास्तिक हो, उसने यहाँ तक कहा है कि हम स्वयं इन्द्र हैं, और जीवन के भाग्य विधाता हैं । हमने इन्द्र की पूजा की है, तब भी पशुओं में रोग और विपत्तियाँ आईं हैं, वर्षा भी नहीं हुई है, लोगों के कष्ट भी बढ़ गए हैं तब इन्द्र कहाँ चला गया था ? इन्द्र की पूजा से क्या लाभ हुआ ? जब पूजा करने पर भी बाढ़ आई, घोर वृष्टि हुई और वह दूर नहीं कर सका । फिर उसकी पूजा क्यों की जाय ? और उसके चक्कर में हम सभी क्यों पडे हैं ? इन्द्र की अपेक्षा तो गोवर्धन पर्वत ही अच्छा है, उससे हमें स्पष्ट लाभ होता है, उस पर गायें चरती हैं, हरी घास की उपलब्धि होती है, उससे वर्षा का जल खेतों को प्राप्त होता है, और वर्षा में हम वहाँ शरण लेकर अपनी रक्षा कर पाते हैं । इस प्रकार इन्द्र से अच्छा तो यह गोवर्धन पहाड़ है जो यथार्थ रूप में निरन्तर सेवा और सहायता प्रदान करता है । अतः इन्द्र की पूजा करने की अपेक्षा गोवर्धन पहाड़ की पूजा अधिक अच्छी है । लोगों ने श्रीकृष्ण के इस यथार्थवादी दृष्टिकोण को स्वीकार किया । सब उनके नेतृत्व में आए और इन्द्र की पूजा छोड़कर गोवर्धन पहाड़ की पूजा करने लगे ।
__ श्रीकृष्ण के इस क्रान्त दर्शन को हम सिर्फ बाहरी तौर पर ही न लें उसकी गहराई में भी जाएँ ? वह मनुष्य के स्वामी देवता को कहीं स्वर्ग या आकाश में नहीं खोजता बल्कि मनुष्य के अन्दर ही खोजता है और अपने अन्दर के इन्द्र को जगाने की बात करता है । उसने कहा कि यदि मान भी लिया जाय कि इन्द्र है तो क्या तुम्हारे पुरुषार्थ के विपरीत फल देने की सामर्थ्य भी उसमें है ? यदि नहीं है, तो फिर पुरुषार्थ और कर्म ही अपने भाग्य का इन्द्र और निर्माता हुआ । इस प्रकार श्रीकृष्ण के विचारों में एक बहुत बड़ी क्रान्ति का स्वर गूंज उठा । सौराष्ट्र की ओर
श्रीकृष्ण ने यादव कुल में जन्म लिया था, उस जाति के लोग आज भी उस क्षेत्र में बसते हैं और उनकी दशा बड़ी दयनीय है । उस काल में भी यादवों की जाति एक छोटी जाति मानी जाती थी और उसका कोई विशेष महत्वपूर्ण स्थान नहीं था । किन्तु श्रीकृष्ण के सफल नेतृत्व के कारण ही वह जाति भारत की वीर जातियों में गिनी जाने लगी और उस जाति के बच्चे भी उस समय की बहुत बड़ी हस्ती जरासन्ध को चुनौती देने लग गये थे । श्रीकृष्ण ने अपने पुरुषार्थ से कंस को समाप्त
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