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समभावी साधक : गज सुकुमार
साधना के लिए अभिनव साधक निर्जन श्मशान-भूमि में गया और मन को एकाग्र करके ध्यानस्थ खड़ा हो गया । सिर पर आग
एक ओर हमारा दुर्बल मन है कि जरा-सी धूप लगते ही संकल्प विकल्प के झूले में झुलने लगता है । नन्हा-सा काँटा चुभते ही आहे भरने लगता है । परन्तु वहाँ क्या हो रहा है ? मुनि के सिर पर गीली मिट्टी की पाल बाँधकर उसके अन्दर जाज्वल्यमान अंगारे रखे हैं । मांस जल रहा है, रक्त उबल रहा है, सारे शरीर में तीव्र वेदना हो रही है, फिर भी वह शान्त भाव से अचल खड़ा है । उसके मन में कोई हलचल नहीं है, किसी तरह की अशान्ति नहीं है । वह साधक जलते हुए आग के शोलों के नीचे भी हँस रहा है ।
मैं बता रहा था कि मेरा लुञ्चन हो रहा था और गज सुकुमार मुनि का संगीत चल रहा था । वह क्षमा की दिव्य क्षमा मूर्ति मेरे कण-कण में ज्योतिर्मान हो उठी । मेरा देहाभास दूर होता रहा और आत्मा में नई स्फूर्ति, नई शक्ति और अभिनव तेज जागृत होता रहा । लोच की वेदना कम हो रही थी । और इधर लोच करने वाले सन्तों ने कहा-“आज इतना ही लोच रहने दो । अवशेष एक दो दिन बाद कर देंगे ।" भाइयों ने भी आग्रह भरी विनती की कि अवशेष, लोच दो-तीन दिन ठहर कर करा लेना । बहनों ने भी इसी बात का समर्थन किया । परन्तु मैंने दृढ़ स्वर में कहा—'नहीं, ऐसा नहीं होगा' । मैं लोच कराए बिना एक इञ्च भी नहीं हटूंगा । मुझे लोच का फैसला दो तीन दिन की दूरी पर नहीं छोड़ना है, आज ही, इसी वक्त फैसला करना है । और मैंने बिना किसी खेद के, बिना द्वन्द्व के शान्त-भाव से सारा लोच कराया । दर्द अवश्य हुआ, परन्तु संवेदन की अनुभूति मन्द पड़ गई । वह सहन शक्ति कहाँ से आई ? गज सुकुमार मुनि के जीवन से। यह ध्वनि मेरी आत्मा में गूंजती रही -
___ "मुनि नजर न खंडी हो, मेटी मन की झाल ।" मस्तक पर आग जल रही है और अन्तर में चिन्तन मनन चल रहा है । शरीर में चपलता नहीं, विचारों में चंचलता नहीं, भावना में आक्रोश नहीं और मन में दुःसंकल्प नहीं । दृष्टि में सौम्यता है, मन में वही वीतराग भावना है । श्रीकृष्ण और माता के प्रति जो भावना बरस रही
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