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कर्मयोगी श्रीकृष्ण
इसके विपरीत जो यह मान बैठे हैं कि बस ! जहाँ हम जमे बैठे हैं, वहीं ठीक है, आगे कहाँ जाएँ ? क्या दिक्कतें हैं ? कैसे उनका मुकाबला करें ? वे विकास नहीं कर सकते । उनके लिए तो यही बात लागू होती है :
तातस्य कूपोऽयमिति ब्रुवाणाः क्षारं जलं कापुरुषा पिबन्ति ।
यदि किसी के घर में कोई कुआँ हैं, पुरखों का खुदवाया हुआ है । उसका पानी खारा है, जिसे पीने से तकलीफ होती है । गांव में दूसरे मीठे पानी के कुएँ भी हैं । किन्तु कुछ आलस्य और कुछ इस आग्रह से कि यह हमारे पुरखों का है, वह उसी को जहर की घूँटों के समान खारा पानी पीता रहे उसे क्या कहा जाय ? इस अकर्मशीलता और असाहसिकता का बुरा परिणाम उसे ही भोगना पड़ता है ।
श्रीकृष्ण के विचारों की उस उदारता और साहसिकता का परिचय आज भी हमें मिल रहा है । जब हम यादव जाति के इतिहास को पढ़ते हैं । एक साधारण यादव जाति जिसके पीछे कोई महत्वपूर्ण इतिहास ही एक साथ उन्नति के शिखर पर चढ़ जाए और एक दिन उसका चमकता हुआ सूर्य समूचे भारत खण्ड को आलोकित करने लग जाय, यह सब उसी की करामात है ।
श्रीकृष्ण को मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय थी, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि विपरीत परिस्थितियाँ होने पर भी वे उससे चिपके रहे । बहुत समय पहले उनके पूर्वज भी तो किसी अन्य देश से यहाँ आकर बसे ही, परिस्थितियों की अनुकूलता ने उन्हें वहाँ अवसर दिया, आज परिस्थितियाँ यहाँ रहने के अनुकूल नहीं हैं तो उन्होनें छोड़ने का निश्चय कर लिया । मनुष्य सदा एक ही विचार से चिपका नहीं रहता, उस देश, काल, समय को देखकर चलना ही पड़ता है । इस विचार से उन्होनें देश छोड़ा और सौराष्ट्र की ओर प्रस्थान किया । पीछे-पीछे जरासन्ध की सेनाएँ आ रही थीं, यादव जाति के नौजवान उनका मुकाबला भी करते थे, और आगे बढ़ते भी जाते थे । इस प्रकार अपनी और जाति की रक्षा करते हुए सौराष्ट्र के किनारे पहुँचते हैं और सोने की नगरी द्वारिका का निर्माण करते हैं । द्वारिका के निर्माण के साथ जरासन्ध की सेनाओं के साथ संघर्ष में विजय का झंडा फहराया और एक विशाल
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