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क्रान्तिकारी महापुरुष : श्रीकृष्ण
नर-मेध-यज्ञ को रोकें । युधिष्ठिर की राज्य-सभा में इस प्रश्न पर विचार हुआ और श्रीकृष्ण की बात स्वीकार करके उस यज्ञ को रोकने का तय किया गया । भीम और अर्जुन के साथ श्रीकृष्ण गए और जरासंध का वध करके उस भयंकर नर-मेध-यज्ञ को रोका, तथा तमाम बंदी राजाओं को मुक्त किया । श्रीकृष्ण की दृष्टि में यज्ञ का अर्थ बहुत ऊँचा था । वे स्थूल तथा द्रव्य-यज्ञों से ज्ञान-यज्ञ को ऊँचा मानते थे । उन्होंने गीता में कहा -
'श्रेयान् द्रव्य-मयाद् यज्ञाद् ज्ञान-यज्ञः परंतप' ! हे अर्जुन ! इन स्थूल यज्ञों से, बाहरी यज्ञों से श्रेय नहीं होगा । सच्चा यज्ञ तो ज्ञान-यज्ञ ही है, जिसमें मन के पाप जलकर समाप्त हो जाते हैं । और भी यज्ञ के सम्बन्ध में विलेषण करते हुए उन्होंने कहा -
'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि !' यहाँ पर उन्होंने ज्ञान-यज्ञ की ओर ही संकेत किया है । वे यह बताना चाहते हैं कि मनुष्य स्थूल भाषा और बाह्य क्रियाओं में उलझ जाता है, जीवन के छोटे-छोटे केन्द्रों में बन्द हो जाता है, अपने आन्तरिक आदर्शों को भूलकर क्रिया-कांड प्रधान बन जाता है, यह ठीक नहीं है । इसलिए श्रीकृष्ण ने ब्रज में होने वाली इन्द्रपूजा का भी विरोध किया । हजारों मन दूध-दही को नष्ट करके और देश की धन-शक्तिऔर जन-शक्ति को अपव्यय करके इन्द्रपूजा का अनुष्ठान करना उन्होंने गलत बताया । इस इन्द्रपूजा से तो गोवर्धन पर्वत की पूजा करना अधिक श्रेष्ठ है । क्योंकि यह पर्वत बाढ़ से हमारी रक्षा करता है । हमारे पशुओं के लिए चारागाह प्रदान करता है । इन सब दृष्टियों से कृष्ण के जीवन पर जब विचार किया जाता है तो वहाँ ऐसी क्रान्तिकारी भावनाओं के दर्शन होते हैं जो अन्यत्र दुर्लभ हैं । वे केवल उन्हीं बातों का समर्थन करते हैं जो समाज के लिए उपयोगी हैं । सचमुच वे एक क्रान्तिकारी महापुरुष थे । बांसुरी और सुदर्शन चक्र उनकी क्रांति के ये दो माध्यम थे । सन्तुलित व्यक्तित्व ___आज उनके जन्म-दिन के अवसर पर जब हम उन्हें याद करते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो हम किसी विराट सागर के किनारे पर खड़े हैं । उस सागर में से एक-एक चुल्लू पानी भरकर उस सागर की विराटता प्राप्त करना चाहते हैं । पर एक-एक चुल्लू पानी से भला उस
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