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वैराग्य मूर्ति : गौतम कुमार
बल न होने पर भी यदि संकल्प में बल है तो वह कार्य अवश्य ही पूरा होता है । मनुष्य के जीवन का उत्थान और पतन उसके अपने संकल्प से ही होता है । विकल्प मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है
और संकल्प उत्थान की ओर । विकल्प से विनाश "गुण रयण तवोकम्म फासेइ ।" गुणरत्न तप करने की भावना का गौतम मुनि के मन में उदय हुआ । तप करना बड़ा कठिन है, परन्तु तीव्र वैराग्य तप को सहज एवं सरल बना देता है । शरीर दुर्बल और क्षीण होने पर भी गौतम मुनि ने अपने संकल्प बल से गुण रत्न तप की आराधना और साधना की । मासिक संलेखना
जन्म, जीवन और मरण-इन तीन अवस्थाओं में से प्रत्येक संसारी प्राणी को पार होना पड़ता है । तत्त्वदर्शी और अज्ञानी दोनों ही उक्त दशाओं को पार करते हैं । अज्ञानी समझता है—जन्म भी दुःखमय है, मरण भी दुःखमय है । केवल बीच का जीवन ही सुखमय है । इसीलिए वह जीवन के संरक्षण में प्रयत्नशील होता है । जीवन उसे प्रिय होता है । जीवन के वियोग में वह व्याकुल और विकल हो जाता है । परन्तु ज्ञानी जन्म और मरण के समान जीवन को भी दुःखमय ही समझता है । ज्ञानी कहता है कि जन्म भी दुःख है, मरण भी दुःख है, तब दोनों के बीच का जीवन सुखमय कैसे हो सकता है ? जीवन के क्षणिक सुख को भी वह दुःख ही समझता है । अतः जीवन के वियोग काल में भी वह व्याकुल एवं विकल नहीं होता ।
गौतम मुनि ने जन्म भी देखा, जीवन भी जिया और जप-तप की कठोर साधना करते-करते मरण घड़ी नजदीक आई, तब वह जरा भी विकल नहीं बना । गौतम ने सोचा-तप करते-करते शरीर जीर्ण, शीर्ण
और क्षीण हो गया है । शरीर की शक्ति क्षीण हो चुकी है । इसका उत्थान, बल, वीर्य और पराक्रम घटता जा रहा है । देह और देही के वियोग का क्षण निकट होता जा रहा है । एक से एक कठिन साधना वह करता गया । एक दिन मन में विचार उठा कि अब शरीर की शक्ति का ह्रास होता चला जा रहा है । देह अब देही का साथ छोड़ने वाला है । चलना और खड़ा होना तो दूर, अब बैठे रहने में भी पीड़ा और व्यथा की अनुभूति होने लगी है । मालूम पड़ा कि मौत नजदीक
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