________________
पर्युषण-: -प्रवचन
आ रही है । संसार का पामर प्राणी जिस स्थिति में परेशान और हैरान हो जाता है, गौतम उस स्थिति में भी प्रसन्न और स्थिर था । एक दिन गौतम गुरु के चरणों में पहुँचा और बोला
कहा-
"भगवान् ! अब जीवन का अन्त निकट है । आपकी आज्ञा हो तो संलेखना कर लूँ, संथारा स्वीकार कर लूँ । इस नश्वर देह में जो भी बल, वीर्य और पराक्रम है, उसे सार्थक कर लूँ । इस शरीर को वोसराने के लिए मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ ।" अरिष्टनेमि भगवान् ने - "जहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह" । " वत्स ! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो ।" कथा सूत्र है - " थेरेहिं सद्धिं सत्तुंजं दुरूहइ, मासियाए संलेहणाए बारस वरिसाई परिताए जाव सिद्धे । ” गौतम मुनि भगवान् की आज्ञा प्राप्त करके शत्रुंजय पर्वत पर स्थविरों के साथ में गया और वहाँ पहुँच कर एक मास का संथारा किया । वहाँ एक बड़ी शिला पर आसन लगाकर अपनी आत्मा को परमात्म स्वरूप में संलग्न किया । ज्योति से ज्योति मिलाने लगे । जो भी कर्म शेष रह गये थे, उन्हें ध्यान की अग्नि में भस्म करने लगे । ज्ञान और ध्यान के बल से संचित कर्मों की निर्जरा की । बँधने वाले नये कर्मों के बन्ध को रोका और उदयावली प्रविष्ट कर्मों को शान्ति के साथ भोगा । इस एक मास की संलेखना में न हिले, न डुले; स्थिर और शान्त रहे ! देह का ममत्व भाव सर्वथा त्याग दिया और सभी कर्मों का अन्त किया । अन्त समय में उसकी आत्मा परमात्म-स्वरूप में लीन बनी रही । वे भव के विभवभावों से विमुक्त हो गए । द्वादश वर्ष तक संयम की कठोर साधना करके सिद्ध हो गए । द्वारिका नगरी का सुकुमार राजकुमार गौतमकुमार अपने लक्ष्य पर पहुँच गया । वह अपनी साधना के द्वारा साधक से सिद्ध हो गया । वह देह-भाव में और आत्म-भाव से परमात्म भाव में पहुँच गया ।
आत्मा और परमात्मा
भारतीय दर्शन में आत्मा और परमात्मा में कोई मौलिक भेद नहीं माना जाता है । आत्मा और परमात्मा में मौलिक भेद नहीं है । जो आत्मा है, वही परमात्मा है । यदि कुछ अन्तर है, तो वह इतना ही है कि आत्मा वह है, जो कर्मों के बन्धन में बँधी पड़ी है । माया और अविद्या में बँधी है । यह दशा है, जब तक वह आत्मा है । जब आत्मा कर्म, माया और वासना के बन्धनों को तोड़ देता है, तब वह परमात्मा बन जाता है । किसी दार्शनिक कवि ने कहा है—
Jain Education International
४६
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org