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पर्युषण-प्रवचन
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भारतवर्ष के मनीषियों ने शान्त रस को रसराज कहा है । एक श्रृंगार रस भी है, वीर रस भी है और करुण आदि मिलाकर नौ रस हैं, पर भारतवर्ष के साहित्य में महाराज, रस का राजा शान्त रस ही माना गया है । पर्युषण पर्व इसी शान्त रस की धारा है । इसका स्वाद भगवान महावीर ने लिया था, गणधर गौतम की आत्मा ने, अतिमुक्त कुमार और गजसुकुमार ने इस धारा में अवगाहन किया था । वह गौतम, जो विशाल ज्ञान का देवता एड़ी से चोटी तक ज्ञान के सागर में डूबा फिर रहा था, लाखों करोड़ों की भेंट जिसे अर्पण की गई थी, हजारों जिज्ञासु जिसके पीछे-पीछे चल रहे थे, लेकिन उसे भी जब आत्म ज्ञान, सच्चा ज्ञान हुआ तो हजारों लाखों अनुयायियों और शिष्यों की परवाह छोड़कर भगवान् महावीर के शान्त रस के सागर में विलीन हो गया ।
__ इसी रस का आनन्द लेने हेतु एक दिन जम्बू कुमार भी चल पड़े उस ओर । लाखों करोड़ों का उनका वैभव था । विवाह हुआ तो ६६ करोड़ की सम्पत्ति तो उन्हें दहेज में ही मिल गई । इस पर से अन्दाज लगाया जा सकता है कि उनकी सम्पत्ति कितनी विशाल होगी । विशाल वैभव, हीरे मणि-माणिक की चमक और उन स्वर्ण-महलों को छोड़कर एक दिन चुपचाप नंगे सिर, नंगे पैर एक भिक्षु का रूप बना कर अपना सर्वस्व समर्पण कर देते हैं । गुरु के चरणों में; तो हम विचार कर सकते हैं कि यह त्याग और वैराग्य का आध्यात्मिक रस कितना महान् है ? इस पर्व के सम्बन्ध में हमारे महर्षि आवाज लगा रहे हैं यही जीवन का आनन्द है, जरा आगे आओ और इसका पान करो ।।
भारतीय सन्त साहित्य में तीन मकोड़ों की कथा चलती है । कहते हैं, तीन मकोड़े-चींटे भोजन की तलाश में चल पड़े । ये तीनों ही साथी जब से निकले, नगर ग्राम में घूमते रहे पर कहीं कुछ प्राप्त न हो सका उन्हें । रोटी की तलाश में चक्कर काटते-काटते आगे बड़े तो उन्हें एक वृक्ष मिला । वह वृक्ष था नीम का । उस पर चढ़ना शुरू किया । एक तो उसकी जड़ पर ही घूमने लगा । सोचने लगा कि कहाँ से चहूँ और कैसे बहूँ ? दूसरे ने जरा हिम्मत की और थोड़ा आगे बढ़ गया । कुछ दूरी पर जाकर वह भी अटक गया । तीसरा था अनुगामी । वह द्रुतगति से बढ़ रहा था, तेजी से चढ़ रहा था । वह टहनियों तक पहुँचा, पत्तों तक पहुँचा, निबौरियों तक पहुँच गया । निबौरियाँ पक चुकी थीं, उनमें रस पैदा हो चुका था, नीम की कड़वाहट मधुरता में परिणत हो चुकी
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