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वैराग्य मूर्ति : गौतम कुमार
यह अन्तकृत-दशा सूत्र है । भगवान महावीर की द्वादशांग वाणी में यह आठवाँ अंग सूत्र है । इसमें उन महान् आत्माओं के जीवन का वर्णन है, जिन्होंने अपने साधक जीवन के अन्त में आमरण तपः साधना करके संसार का अन्त किया था । इसी आधार पर इसे अन्तकृत् सूत्र कहा जाता है । इसके मूल उपदेशक भगवान् महावीर हैं, फिर भी इसके प्रारम्भ में प्रवक्ता आर्य सुधर्मा और श्रोता आर्य जम्बू हैं । इसका कारण यह है कि आर्य सुधर्मा को भगवान् महावीर से जो श्रुत उपलब्ध हुआ था, उसकी सर्वप्रथम उपदेशना उन्होंने अपने प्रिय शिष्य जम्बू को दी थी । अतः इस अन्तकृत् सूत्र के प्रवक्ता आर्य सुधर्मा हैं और श्रोता आर्य जम्बू हैं । भगवान् महावीर
जैन परम्परा के अनुसार जिन शासन के अन्तिम उपदेष्टा और चरम तीर्थकर भगवान् महावीर थे । समस्त तीर्थकरों में महावीर ने सबसे अधिक घोर तप की साधना की थी । अतः बौद्ध पिटकों में इन्हें दीर्घ तपस्वी कहा गया है । भगवान् साधना क्षेत्र में वीरों के भी वीर थे, इसीलिए इन्हें महावीर कहा जाता है । जैन परम्परा के वर्तमान काल तक प्रवाह प्राप्त समग्र श्रुत साहित्य का मूल उद्गम स्थान महावीर को माना गया है । भगवान् महावीर का समस्त आचार, समग्र विचार और सम्पूर्ण विश्वास जिसमें सुरक्षित है, उसे द्वादशांगी वाणी कहा जाता है । शेष समस्त विस्तार इसी का है । द्वादशांगी वाणी के अर्थ रूप में प्रवक्ता भगवान् महावीर ही हैं । परन्तु उस वाणी को सूत्र एवं शब्द का आकार गणधरों ने दिया है । आर्य सुधर्मा
भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे । गण एवं गच्छ को धारण करने वाला गणधर कहा जाता है । तीर्थकर किसी पर शासन नहीं करता । वह उपदेश तो देता है, पर किसी को आदेश नहीं देता । गण एवं गच्छ को सन्मार्ग पर चलाने के लिए आदेश गणधर ही देता है । अतः तीर्थकर के द्वारा स्थापित तीर्थ एवं संघ की व्यवस्था करने
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