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पर्युषण पर्व की आराधना
के लिए आत्मा की उपासना करना अपने ही स्वरूप के चिन्तन में अपने आपको लगाकर तदाकार कर लेना, अपने आपको आत्मा के अनन्त आनन्द सागर में उतारना ही इसका ध्येय है । यह तपस्या और धर्म ध्यान भी इसी भावना की प्रेरणा है ।
तो पर्युषण पर्व का अर्थ क्या है ? इसका अर्थ है आत्मा का आत्मा के समीप रहना । मतलब यह है कि आत्मा मूल में परमात्मा है, आत्मा मूल में ईश्वर-भाव है । आत्मा अपने आप में हिंसा नहीं, अहिंसा है । आत्मा अपने आप में असत्य नहीं, सत्य है । आत्मा अपने आप में वासना नहीं, विकार नहीं, परन्तु अखण्ड ब्रह्मचर्य है । आत्मा अपने आप में क्रोध नहीं, क्षमा है । आत्मा अपने आप में अहंकार नहीं, नम्रता है । आत्मां अपने आप में विकृति नहीं, धोखा धड़ी और फरेब नहीं, परन्तु सीधी सरलता है । सात्विक सौम्यता है । इसी प्रकार आत्मा-आत्मा अपने आप में लोभ, मद, मोह, माया नहीं, परन्तु आनन्द, सन्तोष, त्याग और वैराग्य है।
आत्मा के दो रूप हैं । एक आत्मा का मूल रूप है जो कि सद्गुणों के रूप में है, सद्भावनाओं के रूप में है, तप और त्याग के रूप में है, वह आत्मा का ईश्वरीय रूप है । दूसरा आत्मा का बहिर्मुख रूप है, जहाँ कभी क्रोध आता है, कभी अभिमान आता है, कभी माया आकर अपने पैर फैलाती है और कभी लोभ अपना आसन जमाने का प्रयत्न करता है । इन विकारों और वासनाओं के जंगल में आत्मा भटक जाती है, कभी-कभी । इस अन्तरंग-जीवन का नाम है आध्यात्मिक जीवन और बाह्य-जीवन का नाम है भौतिक जीवन । जब हम बाह्य जगत् से अलग होकर अन्तर्मुखी हो जाते हैं, क्रोध से क्षमा में चले जाते हैं, हिंसा से अहिंसा में चले जाते हैं, विषय वासनाओं से ब्रह्मचर्य में चले जाते हैं, अभिमान से बच कर नम्रता में पहुँच जाते हैं, संसार की माया में से, इनं प्रपंचों और दुखों में से निकल कर सात्त्विकता, सद्भावना और सरलता से प्रविष्ट होते हैं तो इसका नाम है पर्युषण पर्व । जब हम लोभ लालच में से निकल कर सन्तोष में अपने आपको रमा लेते हैं, खाने, पीने और पहिनने की, श्रृंगार की, अन्तर्विकारों की एवं इसी प्रकार संसार की अन्य वासनाओं से निकल कर अन्तरंग आत्मा में पहुँचते हैं तो उसका नाम है आध्यात्मिक पर्व । पर्युषण पर्व का अर्थ क्या हुआ ? अपनी आत्मा में रमना, अपनी आत्मा में डूब जाना, अपनी आत्मा में विलीन हो जाना। आत्मा में लीन होने का अर्थ है, परमात्म स्वरूप में लीन होना ।
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