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सिखाते हैं। लेकिन पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, सब-के-सब बिना सिखाये ही मरण से डरते हैं, मरण से भागते हैं और लाचारी से मरण के वश होते हैं। _____ मननशील मनुष्य को इससे कुछ अधिक चिंतन-मनन करना चाहिए। जिन लोगों ने मरण के प्रयोग किये हैं, उनके अनुभव भी समझने चाहिए। हमने देखा कि मरण सचमुच 'परम सखा' है । जीवन को कृतार्थ करने के लिए मरण आवश्यक है। एक दिन मरण की बात समझाते हुए आवेश में आकर मैंने कहा था, "प्राणियों के लिए ईश्वर की सबसे श्रेष्ठ देन या वरदान कोई हो, खुदा की अच्छी-से-अच्छी नियामत कोई हो, तो वह मरण ही है। अगर भगवान हमसे मरण छीन लेगा तो उसके खिलाफ सत्याग्रह करके मैं प्रात्महत्या ही करूंगा।" अगर सतत जीना है तो बीच-बीच में मरण की सहूलियत होनी ही चाहिए। हिंदी भाषा के दो शब्दों के साम्य से लाभ उठाकर मैंने कहा था, "मीच हमारा अच्छे-से-अच्छा मीत है।" इसीका आवश्यक मनन पाठक इस किताब में पायंगे।
सवाल उठता है कि इतने अच्छे कल्याणकारी मृत्यु को भगवान ने इतना दु.खमय और भयानक क्यों बनाया ? मैं कहंगा कि भगवान ने मृत्यु को दुःखमय बनाया है सही, लेकिन उसे उसने भयानक नहीं बनाया। यह मनुष्य ने किया है । मृत्यु की वह भयानकता दूर करना, यही इस पुस्तक की प्रेरणा है।
प्राणियों के लिए और खास करके मनुष्य के लिए जीवन और मरण दोनों एक-से महत्व के हैं । एक के बिना दूसरे का कोई अर्थ ही नहीं रहता । इसी तरह सुख और दुःख भी मनुष्य के लिए एक-से महत्व के हैं । जीवन के लिए दोनों जरूरी हैं । अकेले सुख में जीवन विकृत हो जायगा । अकेले दुःख से भी जीवन असह्य और विकृत हो जायगा। गीता कहती है, "सुख और दुःख, लाभ और हानि, जय और पराजय तीनों को समान समझना ।" मैं समझता हूं कि गीता का यह बोध मनुष्य