Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः उदा०-(शिव) शून:, शूनवान्। (ईदित:) ओलजी-लग्न:, लग्नवान्। ओविजी-उद्विग्न:, उद्विग्नवान्। दीपी-दीप्तः, दीप्तवान्।
आर्यभाषा: अर्थ-(श्वीदितः) शिव और जिसका ईकार इत् है उस (अङ्गात्) अङ्ग से परे (निष्ठायाः) निष्ठा-संज्ञक प्रत्यय को (इट) इडागम (न) नहीं होता है।
उदा०-(शिव) शूनः । गया/बढ़ा। शूनवान् । पूर्ववत्। (ईदित) ओलजी-लग्नः । लज्जा की। लग्नवान् । पूर्ववत्। ओविजी-उद्विग्नः। व्याकुल हुआ। उद्विग्नवान् । पूर्ववत् । दीपी-दीप्त: । प्रदीप्त हुआ। दीप्तवान् । पूर्ववत्।।
सिद्धि-शूनः । श्वि+क्त। शिव+त। श् उ इ+न। श् उ+न। शू+न। शून+सु। शूनः।
यहां टुओश्वि गतिवृद्ध्यो:' धातु से 'निष्ठा' (३।२।१०२) से भूतकाल अर्थ में क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से निष्ठा-संज्ञक 'क्त' प्रत्यय को इट् आगम नहीं होता है।
ओदितश्च' (८।२।४५) से निष्ठा के तकार को नकार आदेश होता है। वचिस्वपि०' (६।१।१५) से शिव' को सम्प्रसारण, सम्प्रसारणाच्च' (६।१।१०६) से पूर्वरूप (उ+इ-उ) और हलः' (६।४।२) से दीर्घ होता है। ऐसे ही क्तवतु' प्रत्यय में-शूनवान् ।
(२) लग्न: । लज्+क्त। लज्+त। लज्+न। लग्+न। लग्न+सु । लग्नः ।
यहां 'ओलजी वीडायाम् (तु०आ०) धातु से पूर्ववत् क्त' प्रत्यय है। ओदितश्च (८।२।४५) से निष्ठा के तकार को नकार आदेश होता है। इसे असिद्ध मानकर
चो: कु:' (८।२।३०) से जकार को कुत्व गकार होता है। ऐसे ही क्तवतु' प्रत्यय में-लग्नवान् ।
(३) उद्विग्नः । उत्-उपसर्गपूर्वक 'ओविजी भयचलनयोः' (तु०आ०) धातु से पूर्ववत्।
(४) दीप्त: । दीपी दीप्तौं' (दि०आ०) धातु से पूर्ववत् । इट्-प्रतिषेधः
(८) यस्य विभाषा।१५। प०वि०-यस्य ६ ।१ विभाषा १।१ । अनु०-अङ्गस्य, न, इड्, निष्ठायाम् इति चानुवर्तते। अन्वय:-यस्याङ्गस्य विभाषा इट् तस्माद् निष्ठाया न।
अर्थ:-यस्याङ्गस्य क्वचिद् विभाषा इड् विहितस्तस्माद् निष्ठाया इडागमो न भवति।
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