Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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प्रष्टा
लेष्टा
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् . धातुः | पदान्ते । झलि भाषार्थ: ७. भ्राज् | विभ्राट
विविध जगत् को प्रकाशित करनेवाला (ईश्वर) {छकारान्त} ८. प्रछ् शब्दप्राट
शब्द पूछनेवाला।
पूछनेवाला। प्रष्टुम् पूछने के लिये।
प्रष्टव्यम् । पूछना चाहिये। {शकारान्त} ९. लिश् । लिट्
अल्पभावी।
अल्प होनेवाला। लेष्टम् अल्प होने के लिये।
लेष्टव्यम् | अल्प होना चाहिये। १०. विश् विट
| देशदेशान्तर में प्रवेश करनेवाला (वैश्य)
| प्रवेश करनेवाला। वेष्टुम् । प्रवेश करने के लिये।
वेष्टव्यम् । प्रवेश करना चाहिये। आर्यभाषा: अर्थ-(प्रश्च०) वश्च, भ्रस्ज, सृज, मृज, यज, राज, भ्राज, छकारान्त और शकारान्त (धातूनाम्) धातुओं को (पदस्य) पद के (अन्ते) अन्त में और (झलि) झलादि प्रत्यय परे होने पर (ष:) षकारान्त होता है।
उदा०-उदाहरण और भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है।
सिद्धि-(१) मूलवृट् । यहां मूल-उपपद 'ओव्रश्चू छेदने' (तु०प०) धातु से क्विप च' (२।२७६) से 'क्विप्' प्रत्यय है। वरप्रक्तस्य' (६।११६६) से 'क्विप्' का सर्वहारी लोप होता है। इस सूत्र से पदान्त में विद्यमान व्रश्च्’ के चकार को षकारादेश है। स्को: संयोगाद्योरन्ते च' (८।२।२९) से वश्च्’ संयोगादि सकार (श्) का लोप होता है। झलां जशोऽन्ते' (८।२।३९) से षकार को जश डकार और 'वाऽवसाने (८।४।५६) से डकार को चर् टकार होता है। ऐसे ही 'धानाभृट्' आदि।
(२) व्रष्टा। यहां वश्च्' धातु से पूर्ववत् तृच्' प्रत्यय और ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से तकार को टकारादेश है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) व्रष्टुम् । यहां वश्च्' धातु से पूर्ववत् 'तुमुन्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
वेष्टा
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