Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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अष्टभाध्यायस्य तृतीयः पादः
६५५ सकार के स्थान में (अनिष्ठायाम्) निष्ठा-संज्ञक प्रत्यय से भिन्न कोई प्रत्यय परे होने पर (वा) विकल्प से (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश होता है।
उदा०-(स्कन्द) वि-विष्कन्ता, विस्कन्ता । विशेषत: गमन/शोषणकर्ता । विष्कन्तुम्, विस्कन्तुम् । विशेषत: गमन/शोषण केलिये। विष्कन्तव्यम्, विस्कन्तव्यम् । विशेषत: गमन/शोषण करना चाहिये।
सिद्धि-विष्कन्ता । यहां वि-उपसर्गपूर्वक स्कन्दिर् गतिशोषणयोः' (भ्वा०आ०) धातु से 'वुल्तचौ' (३।१। ) से तृच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इणन्त वि-उपसर्ग से परवर्ती स्कन्द्' धातु के सकार को निष्ठा से भिन्न तृच्' प्रत्यय परे होने पर मूर्धन्य आदेश होता है। विकल्प-पक्ष में मूर्धन्य आदेश नहीं है-विस्कन्ता। यहां 'खरि च' (८।४।५५) से दकार को चर् तकार होकर उसका झरो झरि सवर्णे (८।४।६४) से लोप हो जाता है। तुमुन् प्रत्यय में-विष्कन्तुम्, विस्कन्तुम् । तव्यत् प्रत्यय में-विष्कन्तव्यम्, विस्कन्तव्यम्। मूर्धन्यादेशविकल्प:
(२०) परेश्च ।७४। प०वि०-परे: ५।१ च अव्ययपदम् ।
अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्य:, इण:, उपसर्गात्, वा, स्कन्देरिति चानुवर्तते।
अन्वय:-संहितायाम् इण: परेरुपसर्गाच्च स्कन्देरपदान्तस्य सो वा मूर्धन्यः ।
अर्थ:-संहितायां विषये इणन्तात् परेरुपसर्गाच्च परस्य स्कन्देरपदान्तस्य सकारस्य स्थाने, विकल्पेन मूर्धन्यादेशो भवति ।
उदा०-(स्कन्द्) परि-परिष्कन्ता, परिस्कन्ता। परिष्कन्तुम्, परिस्कन्तुम् । परिष्कन्तव्यम्, परिस्कन्तव्यम् ।
आर्यभाषाअर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (इण:) इणन्त (परे:) परि इस (उपसर्गात्) उपसर्ग से (च) भी परवर्ती (स्कन्दे:) स्कन्द् धातु के (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार के स्थान में (वा) विकल्प से (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश होता है।
उदा०-(स्कन्द्) परि-परिष्कन्ता, परिस्कन्ता। परितः गमन/शोषणकर्ता । परिष्कन्तुम्, परिस्कन्तुम् । परित: गमन/शोषण केलिये। परिष्कन्तव्यम्, परिस्कन्तव्यम् । परित: गमन/शोषण करना चाहिये।
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