Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 736
________________ अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः (२) प्रणिनदति । णद अव्यक्ते शब्दे ( भ्वा०प० ) । (३) प्रणिपतति । पत्लृ गतौ ( भ्वा०प० ) । (४) प्रणिपद्यते । पद गतौ ( दि०प०) । (५) प्रणिददाति । डुदाञ् दाने (जु०उ०) दाधा घ्वदाप्' (१1१120 ) से 'दा' धातु की 'घु' संज्ञा है। (६) प्रणिदधाति । डुधाञ् धारणपोषणयो: (जु०उ० ) । 'धा' धातु की पूर्ववत् 'घु' संज्ञा है। ७१६ 1 (७) प्रणिमिमीते । 'माङ् माने शब्दे च' (जु०आ०) धातु से 'लट्' प्रत्यय है, 'जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२/४/७५) से 'शप्' को श्लु, 'श्लौं' (६ 1१1१०) से धातु को द्विर्वचन, 'भृञामित्' (७/४/७६ ) से अभ्यास को इकार अदेश और 'ई हल्यघो:' (६ । ४ । ११३ ) से ईकार आदेश है। (८) प्रणिमयते । 'मेङ् प्रणिदानें (भ्वा०आ० ) । (९) प्रणिष्यति । षो अन्तकर्मणि' (दि०प०) धातु से 'लट्' प्रत्यय, लकार के स्थान में 'तिप्' आदेश और 'दिवादिभ्यः श्यन्' ( ३ । १ । ६९ ) से श्यन् विकरण-प्रत्यय है । 'ओतः श्यनि' (७/३ /७१ ) से धातुस्थ ओकार का लोप और 'उपसर्गात् सुनोति०' (८/३/६५ ) से षत्व होता है । (१०) प्रणिहन्ति । हन हिंसागत्योः ( अदा०प० ) । (११) प्रणियाति । या प्रापणे ( अदा०प०) । (१२) प्रणिद्राति । द्रा कुत्सायां गतौ च ( अदा०प० ) । (१३) प्रणिप्साति । प्सा भक्षणे ( अदा०प० ) । (१४) प्रणिवपति । डुवप बीजसन्ताने छेदने च ( भ्वा०प० ) । (१५) प्रणिवहति । वह प्रापणे ( भ्वा०प० ) । (१६) प्रणिशाम्यति । शमु उपशमे ( दि०प०) 'शमामष्टानां दीर्घः श्यनि (७/३/७४) से दीर्घ है। (१७) प्रणिचिनोति । चिञ् चयने ( स्वा० उ० ) । (१८) प्रणिदेग्धि । दिह उपचये ( अदा० उ० ) धातु से 'लट्' लकार, लकार के स्थान 'तिप्' आदेश और 'अदिप्रभृतिभ्यः शप:' ( २/४/७२ ) से 'शप्' का लुक् है। 'दादेर्धातोर्घः' (८।२।३२ ) से हकार को घकार अदेश, 'झषस्तयोर्धोऽधः' (८/२/४०) से तकार को धकार आदेश ओर 'झलां जश् झशिं' (८/४/५३) से घकार को जश् कार आदेश होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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