Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
View full book text
________________
अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
७३६ उदा०-माषकुम्भवापेन, चतुरङ्गयोगेन, प्रावनद्धम्, पर्यवनद्धम्, प्र गां नयाम:, परि गां नयाम: ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (रषाभ्याम्) रेफ और षकार से परवर्ती (न:) नकार के स्थान में (पदव्यवाये) पद का व्यवधान होने पर (अपि) भी (ण:) णकार आदेश (न) नहीं होता है।
उदाo-माषकुम्भवापेन । उड़द का कुम्भ-परिमाण बोनेवाले से । चतुरङ्गयोगेन । चार अगोंवाले योग से (यम, नियम, आसन, प्राणायाम)। प्रावनद्धम् । अत्यन्त बंधा हुआ। पर्यवनद्धम् । सर्वथा बंधा हुआ। प्र गां नयामः । हम गौ को यथावत् ले जाते हैं। परि गां नयाम: । हम गौ को सर्वथा पहुंचाते हैं।
सिद्धि-(१) माषकुम्भवापेन । यहां माषकुम्भ उपपद डुवप बीजसन्ताने छेदने च' (भ्वा०प०) धातु से 'कर्मण्यण' (३।१।१) से 'अण्' प्रत्यय है। इस सूत्र माष' के षकार से परवर्ती 'कुम्भ' पद के व्यवधान में वापेन' के नकार को णकार आदेश का प्रतिषेध होता है। यहां 'अट्कुप्वानुम्व्यवायेऽपि (८।४।२) से णकार आदेश प्राप्त था। अत: उसका प्रतिषेध किया गया है।
(२) चतुरङ्गयोगेन। चत्वारि अगानि यस्य स चतुरङ्गः, तेन योग इति चतुरङ्गयोगः, तेन-चतुरङ्गयोगेन । 'चतुर्’ के रेफ से परवर्ती, अङ्ग पद के व्यवधान में योगेन' के नकार को णकार आदेश नहीं होता है। यहां कुमति च' (८।४।१३) से णकार आदेश प्राप्त था। अत: उसका प्रतिषेध किया गया है।
(३) प्रावनद्धम् । यहां प्र और अव उपसर्गपूर्वक ‘णह बन्धने (दि०प०) धातु से 'क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से प्र-उपसर्ग के रेफ से परवर्ती, 'अव' पद के व्यवधान में 'नद्धम्' के नकार को णकार का प्रतिषेध होता है। उपसर्गादसमासेऽपि णोपदेशस्य' (८।४।१४) से णकार आदेश प्राप्त था। अत: उसका प्रतिषेध किया गया है। परि-उपसर्ग में-पर्यवनद्धम्।
(४) प्र गां नयाम: यहां प्र-उपसर्ग के रेफ से परवर्ती, गाम् पद के व्यवधान में नयाम:' के नकार को णकार आदेश का प्रतिषेध होता है। परि-उपसर्ग में-परि गां नयामः । यह छान्दस प्रयोग है। णकारादेशप्रतिषेधः
__ (३८) क्षुभ्नादिषु च।३८ । प०वि०-क्षुभ्ना-आदिषु ७।३ च अव्ययपदम्। स०-क्षुभ्ना आदिपेषां ते क्षुभ्नादयः, तेषु-क्षुभ्नादिषु (बहुव्रीहिः)। अनु०-संहितायाम्, रषाभ्याम्, न:, णः, न इति चानुवर्तते।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org