Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 733
________________ ७१६ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् __ अनु०-संहितायाम्, रषाभ्याम्, न:, णः, उपसर्गादिति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायाम् उपसर्गस्य रषाभ्यां लोट आनि नो णः । अर्थ:-संहितायां विषये उपसर्गस्य रेफषकाराभ्यां परस्य लोडादेशस्य आनि-इत्येतस्य नकारस्य स्थाने णकारादेशो भवति । उदा०-(आनि) अहं प्रवपाणि, परिवपाणि । अहं प्रयाणि, परियाणि । आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (उपसर्गस्य) उपसर्ग के (रषाभ्याम्) रेफ और षकार से परवर्ती (लोट:) लोट के (आनि) आनि इस आदेश के (न:) नकार के स्थान में (ण:) णकार आदेश होता है। उदा०-(आनि) अहं प्रवपाणि । मैं बीज बोऊ/काटूं। परिवपाणि । अर्थ पूर्ववत् है। अहं प्रयाणि । मैं प्रस्थान करूं। परियाणि । सर्वत: गमन करूं।। सिद्धि-(१) प्रवपाणि। यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'डुवप बीजसन्ताने छेदने च' (भ्वा०उ०) धातु से लट्' प्रत्यय है। लकार के स्थान में 'मिप्' आदेश और 'मेनि:' (३।४।८९) से मिप्' के स्थान में 'नि' आदेश है। 'आडुत्तमस्य पिच्च' (३।४।९२) से इसे 'आट्' आगम होता है। प्र+वप+आ+नि, इस स्थिति में इस सूत्र से प्र-उपसर्ग के रेफ से परवर्ती तथा अट् और पवर्ग-व्यवायी (अ-व-अ-प्-अ-आ) आनि' के नकार को णकार आदेश होता है। परि-उपसर्ग में-परिवपाणि । (२) प्रयाणि । प्र-उपगर्सपूर्वक या प्रापणे' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् । परि-उपसर्ग में-परियाणि। णकारादेशः(१७) नेर्गदनदपतपदघुमास्थास्यतिहन्तियातिवातिद्राति प्सातिवपतिवहतिशाम्यतिचिनोतिदेग्धिषु च।१७। प०वि०-ने: ६१ गद-नद-पत-घु-मा-स्था-स्यति-हन्ति-याति-वातिद्राति-प्साति-वपति-वहति-शाम्यति-चिनोति-देग्धिषु ७।३ च अव्ययपदम्। स०-गदश्च नदश्च पतश्च घुश्च माश्च स्यतिश्च हन्तिश्च यातिश्च वातिश्च द्रातिश्च प्सातिश्च वपतिश्च वहतिश्च शाम्यतिश्च चिनोतिश्च देग्धिश्च ते गदनदपतपदघुमास्यतिहन्तियातिवातिद्रातिप्सातिवपतिवहतिशाम्यतिचिनोतिदेग्धयः, तेषु-गदनदपतपदघुमास्यतिहन्तियातिवातिद्रातिप्सातिवपतिवहतिशाम्यतिचिनोतिदेग्धिषु (इतरेतरयोगद्वन्द्व:) अनु०-संहितायाम्, रषाभ्याम्, न:, णः, उपसर्गादिति चानुवर्तते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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