Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः मूर्धन्यादेशप्रतिषेधः
(६३) सुनोतेः स्यसनोः।११७। वि०-सुनोते: ६।१ स्य-सनो: ७।२। स०-स्यश्च सँश्च तौ स्यसनौ, तयो:-स्यसनो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्य:, इण:, न इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायाम् इण: सुनोतेरपदान्तस्य स: स्यसनोमूर्धन्यो न।
अर्थ:-संहितायां विषये इण: परस्य सुनोतेर्धातोरपदान्तस्य सकारस्य स्थाने, स्यसनो: परतो मूर्धन्यादेशो न भवति।
उदा०- (सुनोति:) स्य:-सोऽभिसोष्यति। स परिसोष्यति (लुट) । सोऽभ्यसोष्यत् स पर्यसोष्यत् (लुङ्) । सव्-अभिसुसूः ।
आर्यभाषाअर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (इण:) इण वर्ण से परवर्ती (सुनोते:) सुज् धातु (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार के स्थान में (स्यसनो:) स्य और सन् प्रत्यय परे होने पर (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश (न) नहीं होता है।
उदा०-(सुत्र) स्य-सोऽभिसोष्यति । वह निचोड़कर रस निकालेगा। स परिसोष्यति । वह सर्वतः निचोड़कर रस निकालेगा (लुट्)। सोऽभ्यसोष्यत् । यदि वह निचोड़कर रस निकालता। स पर्यसोष्यत् । (लुङ्)। यदि वह सर्वत: निचोड़कर रस निकालता। सव-अभिसुसूः । निचोड़कर रस निकालने का इच्छुक।
_ सिद्धि-(१) सोऽभिसोष्यति । यहां अभि-उपसर्गपूर्वक 'पुञ् अभिषवे' (स्वा०3०) धातु से लृट् शेषे च' (३।३।१३) से लुट्' प्रत्यय है। ‘स्यतासी लुलुटो:' (३।१।३३) से 'स्य' विकरण-प्रत्यय है। इस सूत्र से 'अभि' के इण वर्ण से परवर्ती सूञ्' धातु के सकार को 'स्य' प्रत्यय परे होने पर मूर्धन्य आदेश का प्रतिषेध होता है। यहां उपसर्गात् सुनोतिः' (८।३।८५) से मूर्धन्य आदेश प्राप्त था। अत: इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। परि-उपसर्ग में-परिसोष्यति । लुङ् लकार में-अभ्यसोष्यत्, पर्यसोष्यतू ।
(२) अभिसुसूः । अभि+सू+सन् । अभि+सू+स । अभि+सू-सू+स। अभि+सू+सू+ष। अभि+सुसूष+क्विप् । अभिसुसूष+० । अभिसुषूस् । अभिसुसूर् । अभिसुसूः।
यहां अभि-उपसर्गपूर्वक 'पुत्र अभिषवे' (स्वा०उ०) धातु से 'धातो: कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।१।७) से सन्' प्रत्यय है। सन्यडो:' (६।१।९) से धातु को द्विवचन होता है। तत्पश्चात् सनन्त अभिसुसूष' धातु से क्वि च (३।२।७६) से क्विप्' प्रत्यय है। 'अतो लोप:' (६।४।४८) से सन्' के अकार का लोप और
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