Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः अन्वय:-संहितायां पदस्योतो व्योरशि लोपो गाय॑स्य ।
अर्थ:-संहितायां विषये पदस्य ओकारात् परयोर्वकारयकारयोरशि परतो लोपो भवति, गार्ग्यस्याचार्यस्य मतेन।
उदा०-(भो:) भो अत्र । भोयत्र। (भगो:) भगो अत्र, भगोयत्र । (अघो:) अघो अत्र, अघोयत्र । ओकारात्परो वकारो न सम्भवति, अतस्तस्य नास्त्युदाहरणम्।
अत्र गार्ग्यग्रहणं पूजार्थं वेदितव्यम्। 'लोप: शाकल्यस्य' (८।३।१९) इत्यनेनालघुप्रयत्नतरस्य यकारस्य विकल्पेन लोपो विधीयते सोऽनेन निवत्यते । नित्यार्थोऽयमारम्भः । लघुप्रयत्नतरस्तु भवत्येव यकार:-भगोयत्र ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (पदस्य) पद के (ओत:) ओकार से परवर्ती (व्योः) वकार और यकार का (अशि) अश् वर्ण परे होने पर (लोप:) लोप होता है (गाय॑स्य) गार्य आचार्य के मत में।
उदा०-(भोः) भो अत्र । भोयत्र। (भगो:) भगो अत्र, भगोयत्र । (अघो:) अघो अत्र, अघोयत्र । अर्थ पूर्ववत् है।
यहां गार्य का ग्रहण पूजा के लिये किया गया है अर्थात् पाणिनि मुनि का भी यही मत है। लोप: शाकल्यस्य' (८।३।१९) से अलघुप्रयत्नतर यकार का शाकल्य के मत से विकल्प से लोप विधान किया गया है, वह इस सूत्र से निवृत्त हो जाता है। अत: यह सूत्र नित्य यकार लोप के लिये आरम्भ किया गया है। व्योर्लघुप्रयत्नतर: शाकटायनस्य' (८।३।१८) से जो यकार को लघुप्रयत्नतर यकारादेश कहा है वह तो बना ही रहता
है-भोयत्र।
सार यह है कि पाणिनि मुनि और गार्य आचार्य के मत में-भो अत्र और शाकटायन आचार्य के मत में-भोयत्र प्रयोग होता है।
भो: आदि में ओकार से परवर्ती वकार सम्भव नहीं है, अत: उसका उदाहरण नहीं दिया गया है। लोपादेशः
(६) उनि च पदे।२१। प०वि०-उजि ७ १ च अव्ययपदम्, पदे ७।१ । अनु०-पदस्य, संहितायाम्, अपूर्वस्य, व्योः, लोप इति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायामपूर्वयो: पदयो?रुञि पदे च लोप: ।
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