Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः अर्थ:-संहितायां विषये सहिधातो: सारूपस्याऽपदान्तस्य मूर्धन्यादेशो भवति।
उदा०-जलाषाट् । तुराषाट्। पृतनाषाट् ।
आर्यभाषाअर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (सहे:) सह धातु के (साड:) साड्-रूप के (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार को (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश होता है।
उदा०-जलाषाट् । जल अर्थात् सुख-शान्ति का अनुभव करनेवाला। तुराबाट । तुर-शीघ्रकारी शत्रुओं का विनाश करनेवाला-इन्द्र। पृतनापाट् । पृतना सेना को नष्ट करनेवाला शूरवीर योद्धा।
सिद्धि-जलाषाट । यहां जल-उपपद वह मर्षणे (भ्वा०आ०) धातु से छन्दसि सहः' (३।२।६३) से ण्वि' प्रत्यय है। ण्वि' प्रत्यय का सर्वहारी लोप होता है। हो ढः' (८।२।३१) से हकार को ढकार, 'झलां जशोऽन्ते (८।२।३९) से ढकार को जश डकार और 'अत उपधाया:' (७।२।११६) से उपधावृद्धि होती है। इस सूत्र से सह धातु के इस 'साइ' रूप के सकार को मुर्धन्य आदेश होता है। 'अन्येषामपि दृश्यते' (६ ॥३ १३५) से दीर्घ होता है। ऐसे ही तुर-उपपद होने पर-तुरापाट् । पृतना-उपपद होने पर-पृतनापाट् । अधिकार:
(३) इण्कोः ।५७। वि०-इण्को: ५।१।
स०-इण् च कुश्च एतयो: समाहार:-इण्कु, तस्मात्-इण्को: (समाहारद्वन्द्व:)।
अर्थ:-इण्कोरित्यधिकारोऽयम्, आपादपरिसमाप्तेः । इतोऽग्रे यद् वक्ष्यति इण: कवर्गाच्च परं तद् भवतीति वेदितव्यम्। यथा वक्ष्यति-'आदेशप्रत्यययो' (८।३।५९) इति।
उदा०-सिषेव । सुष्वाप। अग्निषु। वायुषु। कर्तृषु । गीर्षु। धूर्षु। वाक्षु। त्वक्षु।
आर्यभाषा: अर्थ-(इण्को:) 'इण्को:' यह अधिकार सूत्र है, इस पाद की समाप्ति पर्यन्त । पाणिनि मुनि इससे आगे जो कहेंगे वह इण और कवर्ग से परे होता है, ऐसा जानें। जैसे कि पाणिनि मुनि कहेंगे-'आदेशप्रत्यययोः' (८।३।५९) अर्थात् इण् और कवर्ग से परे आदेश और प्रत्यय के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है।
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