Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः
उदा० - उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है ।
सिद्धि - (१) परिषेवते। यहां परि-उपसर्गपूर्वक सेवृ सेवने' (भ्वा०आ०) धातु से 'लट्' प्रत्यय है। लकार के स्थान में 'त' आदेश है। इस सूत्र से इणन्त परि' उपसर्ग से परवर्ती 'सेव' धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है। नि-उपसर्गपूर्वक से-निषेवते । वि-उपसर्गपूर्वक से-विषेवते । अव्यवाय में- पर्यषेवत, न्यषेवत, व्यषेवत । णिजन्त से षणभूत रान् में- परिषिषेविषते, निषिषेविषते, विषिषेविषते । 'स्तौतिण्योरेव षण्यभ्यासात्' (८ । ३ । ६१ ) से मूर्धन्य आदेश का प्रतिषेध प्राप्त था, अत: यह कथन किया गया है।
(२) परिषितः । यहां परि- उपसर्गपूर्वक 'षिञ् बन्धने' (स्वा०3०) धातु से 'निष्ठा' (३ 1२ 1१०२) से 'क्त' प्रत्यय है। सूत्र कार्य पूर्ववत् है। नि-उपसर्गपूर्वक से निषितः । वि-उपसर्गपूर्वक से - विषितः ।
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विशेषः 'प्राक् सितादव्यवायेऽपिं (८ | ३ |६३) से इस सित' शब्द से पहले-पहले की धातुओं को अव्यवाय में भी मूर्धन्य आदेश होता है और 'स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य' (८।३।६४) से स्था आदि धातुओं में अभ्यासव्यवाय में भी मूर्धन्य आदेश होता है। ‘उपसर्गात् सुनोति०' (८ | ३ |६५ ) में पठित 'स्था' धातु से लेकर इस 'सित' शब्द पर्यन्त के धातु स्थादि कहलाते हैं ।
(३) परिषयः । यहां परि-उपसर्गपूर्वक 'षिञ् बन्धने' (स्वा०3०) धातु से 'एरच् (३/३/५६ ) से 'अच्' प्रत्यय है। सूत्र कार्य पूर्ववत् है । नि-उपसर्गपूर्वक से- निषयः । वि-उपसर्गपूर्वक से - विषयः ।
(४) परिषीव्यति । यहां परि-उपसर्गपूर्वक 'षिवु तन्तुसन्ताने ( दि०प०) धातु से पूर्ववत् ।
(५) परिषहते। यहां परि-उपसर्गपूर्वक 'षह मर्षणें' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् । (६) परिष्करोति । यहां परि-उपसर्गपूर्वक डुकृञ् करणे' (तना० उ० ) धातु से 'लट्' प्रत्यय है । लकार के स्थान में 'तिप्' आदेश है । 'सम्परिभ्यां करोतौ भूषणे (६।१।१३२) से सुट्' आगम होता है। सूत्र - कार्य पूर्ववत् है । परि उपसर्गपूर्वक 'कृ' धातु को 'सुट्' आगम होता है, अत: नि और वि उपसर्गपूर्वक 'कृ' धातु के उदाहरण नहीं हैं।
(७) परिष्टौति। यहां परि-उपसर्गपूर्वक 'ष्टुञ् स्तुतौ' (अदा०प०) धातु से 'लट्' प्रत्यय है। लकार के स्थान में 'तिप्' आदेश है। 'उतो वृद्धिर्लुकि हर्लि' (७ । ३ ।८९) से वृद्धि होती है। सूत्र - कार्य पूर्ववत् है । 'ष्टुना ष्टुः' (८/४/४१) से तकार को टवर्ग टकारादेश होता है।
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