Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः
५८७ तो (वा) विकल्प से (अनुनासिक:) अनुनासिक आदेश होता है। जैसे पाणिनि मुनि कहेंगे सम: सुटि:' (८।३।५) अर्थात् 'सम्' के मकार को सुट्' परे होने पर रु-आदेश होता है। सँस्कर्ता । संस्कार करनेवाला। सँस्कर्तुम् । संस्कार करने के लिये। सँस्कर्तव्यम्। संस्कार करना चाहिये।
सिद्धि-सँस्कर्ता आदि पदों की सिद्धि आगे यथास्थान लिखी जायेगी। नित्यमनुनासिक:
(३) आतोऽटि नित्यम्।३। प०वि०-आत: ६ ।१ अटि ७१ नित्यम् १।१। अनु०-संहितायाम्, रु:, अत्र, अनुनासिक इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां विषयेऽत्र रो: पूर्वस्यातोऽटि नित्यमनुनासिकः ।
अर्थ:-संहितायां विषयेऽत्र रुविधौ रो: पूर्वस्याकारस्याऽटि परतो नित्यमनुनासिक आदेशो भवति, इत्यधिकारोऽयम्।
उदा०-महाँ असि (ऋ० ३।४६।१)। महाँ इन्द्रो य ओजसा (ऋ० ८।६।१)। देवाँ अच्छा दीद्यत् (ऋ० ३।११)।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (अत्र) इस विधि में (रो:) रु से (पूर्वस्य) पूर्ववर्ती (आत:) आकार को (अटि) अट् वर्ण परे होने पर (नित्यम्) सदा (अनुनासिक:) अनुनासिक आदेश होता है, यह अधिकार सूत्र है।
उदाo-महाँ असि (ऋ० ३।४६ ॥१) । तू महान् है। महाँ इन्द्रो य ओजसा (ऋ० ८।६।१)। जो ओज से महान् है वह इन्द्र है। देवाँ अच्छा दीद्यत् (ऋ० ३।१।१)।
सिद्धि-महाँ असि। महान्+असि। महाँ रु+असि। महाँर+असि। महाँय्+असि। महाँ+असि । महाँ असि।
यहां महान्' शब्द के नकार को दीर्घादटि समानपादे' (८।३।९) से 'रु' आदेश है। इस सूत्र से 'ह' से पूर्ववर्ती आकार को अनुनासिक आदेश होता है। 'भो भगो०' (८१३।१७) से रेफ को यकारादेश और लोप: शाकल्यस्य' (८।३।१९) से यकार का लोप होता है। ऐसे ही-महाँ इन्द्रो य ओजसा, देवाँ अच्छा दीद्यत्। अनुस्वारादेशः
(४) अनुनासिकात् परोऽनुस्वारः।४। प०वि०-अनुनासिकात् ५।१ पर: ११ अनुस्वारः ११ । अनु०-संहितायाम्, रुः, अत्रेति चानुवर्तते ।
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