Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) प्रजिघीषति। प्र+हि+सन्। प्र+हि-हि+स। प्र+हि-घि+स। प्र+हि-घी+स। प्र+झि-धी+स। प्र+जि-घी+स। प्रजिघीष+लट् ! अजिधीपति।
यहां प्र-उपसर्गपूर्वक हि गतौ वृद्धौ च' (स्वा०प०) से 'मातोः कर्मण: समानकर्तकादिच्छायां वा' (३।१७) से सन्' प्रत्यय है। 'सन्यङो.' (६१११९) से हि' धातु को द्वित्व होता है। इस सूत्र से अभ्यास से उत्तरवर्ती हि' धातु के हकार को कवर्ग घकारादेश होता है। 'एकाच उपदेशेऽनुदात्तात् (७।२।१०) से सन्' को इडागम का प्रतिषेध, 'इको झल' (१।२।९) से 'सन्’ को किवद्भाव होने से डिति च (१।११५) से गुण का प्रतिषेध और 'अज्झनगमां सनि' (६।४।१६) से दीर्घ होता है। अभ्यास-कार्य पूर्ववत् है।
(२) प्रजेधीयते । प्र+हि+यङ् । प्र+हि-हि+य। प्र+हि-घि+य। प्र+हि-घी+य । प्र+झि-घी+य। प्र+जे-घी+य। प्रजेघीय+लट् । प्रजेधीयते।
यहां प्र-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'हि' धातु से 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ् (३।१।२२) से 'यङ्' प्रत्यय है। 'अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः' (७।४।२२) से हि' को दीर्घ और गुणो यङ्लुको:' (७।४।८२) से अभ्यास को गुण होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) प्रजिघाय। यहां प्र-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त हि' धातु से परोक्षे लिट्' (३।२।११५) से लिट्' प्रत्यय है। ‘णल्' प्रत्यय परे होने पर 'अचो ग्गिति (७१२।११५) से हि' को वृद्धि और 'एचोऽयवायावः' (७।१।७७) से आय्-आदेश है। शेष कार्य पूर्ववत् है। कु-आदेशः
(१७) सन्लिटोर्जेः।५७। प०वि०-सन्-लिटो: ७।२ जे: ६।१।
स०-संश्च लिट् च तौ सन्लिटौ, तयो:-सन्लिटो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-अङ्गस्य, कुः, अभ्यासादिति चानुवर्तते। अन्वय:-अभ्यासाज्जेरङ्गस्य सन्लिटो: कुः ।
अर्थ:-अभ्यासाद् उत्तरस्य जयतेरङ्गस्य सनि लिटि च प्रत्यये परत: कवदिशो भवति।
उदा०-(सन्) स जिगीषति। (लिट्) स जिगाय ।
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