Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
३८५ आर्यभाषा: अर्थ-(व्यथ:) व्यथ् इस (अङ्गस्य) अङ्ग के (अभ्यासस्य) अभ्यास को (लिटि) लिट् प्रत्यय परे होने पर (सम्प्रसारणम्) सम्प्रसारण होता है।
उदा०-स विव्यथे। वह भयभीत/संचलित हुआ। तौ विव्यथाते। वे दोनों भयभीत/संचलित हुये। ते विव्यथिरे । वे सब भयभीत/संचलित हुये।
सिद्धि-विव्यथे। यहां व्यथ भयसंचलनयोः' (भ्वा०आ०) धातु से 'लिट्' प्रत्यय, लकार के स्थान में 'त' आदेश और 'त' के स्थान में लिटस्तझयोरेशिरेच्' (३।४।८१) से 'एश्' आदेश है। लिटि धातोरनभ्यासस्य (६।१८) से व्यथ' धातु को द्वित्व होता है। इस सूत्र से अभ्यास-यकार को इकार सम्प्रसारण और सम्प्रसारणाच्च' (६।१।१०८) से अकार को पूर्वरूप एकादेश (इ) होता है। न सम्प्रसारणे सम्प्रसारणम् (६।१।३७) से 'व्यथ्' के वकार को सम्प्रसारण नहीं होता है। आताम् प्रत्यय में-विव्यथाते। 'झ' (इरेच्) प्रत्यय में-विव्यथिरे। दीर्घादेश:
(१२) दीर्घ इणः किति।६६ । प०वि०-दीर्घ: १।१ इण: ६।१ किति ७।१। स०-क् इद् यस्य स कित्, तस्मिन्-किति (बहुव्रीहि:)। अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्य, लिटीति चानुवर्तते । अन्वयः-इणोऽङ्गस्याऽभ्यासस्य किति लिटि दीर्घः । अर्थ:-इणोऽङ्गस्याऽभ्यासस्य किति लिटि प्रत्यये परतो दीर्घो भवति । उदा०-तौ ईयतुः । ते ईयुः।
आर्यभाषा अर्थ-(इण:) इण् इस (अगस्य) अग के (अभ्यासस्य) अभ्यास को (किति) कित् (लिटि) लिट् प्रत्यय परे होने पर (दीर्घः) होता है।
उदा०-तौ ईयतुः । वे दोनों गये। ते ईयुः । वे सब गये।
सिद्धि-ईयतुः। इ+लिट् । इ+तस्। इ+अतुस्। य+अतुस् । इ-इय्+अतुस् । ई-य+अतुस् । ईयतुः ।
यहां 'इण् गतौ' (अदा०प०) धातु से लिट्' प्रत्यय है। लकार के स्थान में तस्' आदेश और तस्' के स्थान में 'अतुस्' आदेश है। यह 'असंयोगाल्लिट् कित् (१।२।५) से किद्वत होता है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।११८) से द्वित्व करते समय प्रथम इणो यण्’ (६।४।८१) से यणादेश होता है। पश्चात् द्विवचनेऽचिं' (१।१।५८) से रूपातिदेश होकर इण को द्वित्व होता है-इ-य+अतुस् । इस सूत्र से अभ्यास को दीर्घ होता है-ई-य्+अतुस् ईयतुः । ऐसे ही झि (उस्) प्रत्यय में-ईयुः ।
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