Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः सिद्धि-(१) सूत्थितः। यहां 'सु' और 'उत्थित' शब्दों का कुगतिप्रादयः' (२।२।१८) से प्रादितत्पुरुष समास है। सुः पूजायाम् (१।४।९३) से 'सु' शब्द की कर्मप्रवचनीय संज्ञा है, 'गतिश्च' (१।४।६०) से प्राप्त गतिसंज्ञा का यह अपताद है। तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्ययद्वितीया: कृत्या:' (६ १२ १२) से तत्पुरुष समास में पूर्वपदवर्ती 'सु' को अव्ययलक्षण प्रकृतिस्वर होता है। निपाता आधुदात्ता:' (फिट ४११२) से 'सु' आधुदात है। 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' (६।१।१५३) से शेष पद अनुदात्त होता हैसु-उत्थितः, इस स्थिति में अक: सवर्णे दीर्घः' (६:१९९) से दीर्घरूप एकादेश होता है। इस सूत्र से यह उदात्त और पदादि अनुदात्त का एकादेश स्वरित होता है-सत्थितः। विकल्प-पक्ष में एकादेश उदात्तेनोदात्त:' (८।२१५) से एकादेश उदात्त होता है-सूत्थितः ।
(२) वीक्षते । वि+ईक्षते वीक्षते। यहां तिङ्ङतिङः' (८।११५८) से 'ईक्षते' पद सर्वानुदात्त है-ईक्षते । शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही-वसुक:+असि-वसुकोऽसि । नलोपादेशः--
(४) न लोपः प्रातिपदिकान्तस्य।७। प०वि०-न ६।१ (लुप्तषष्ठीकं पदम्) लोप: ११ प्रातिपदिक ६।१ (लुप्तषष्ठीकं पदम्) अन्तस्य ६।१ ।
अनु०-‘पदस्य' (८।१।१६) इत्यनुवर्तते। अन्वय:-प्रातिपदिकस्य पदस्यान्तस्य नस्य लोपः। अर्थ:-प्रातिपदिकस्य पदस्य योऽन्त्यो नकारस्तस्य लोपो भवति । उदा०-राजा । राजभ्याम् । राजभिः । राजता। राजतरः । राजतमः।
आर्यभाषा: अर्थ-(प्रातिपदिकस्य) प्रातिपदिक (पदस्य) पद का जो (अन्तस्य) अन्त्य (नस्य) नकार है, उसका (लोपः) लोप होता है।
उदा०-राजा। भूपति। राजभ्याम् । दो राजाओं से। राजभिः । सब राजाओं से। राजता । राजभाव (राजपना) राजतरः। दोनों में से अतिशायी राजा! राजतम: । बहुतो में से अतिशायी राजा।।
सिद्धि-राजा। राजन्+सु । राजान्+स्। राजान्+० । राजा० । राजा।
यहां 'राजन्' झाब्द से 'स्वौजस०' (४।१।२) से 'सु' प्रत्यय है। 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' (६ ॥४१८) से नकारान्त अग की उपधा को दी और 'हल्यायो दीर्घात०' (६।११६७) से सु' का लोप होता है। इस सूत्र से राजन्' प्रातिपदिक पद के अन्त्य नकार का लोप होता है। सुप्तिङन्तं पदम् (१।४।१४) से पद-संज्ञा है। ऐसे ही 'भ्याम्' प्रत्यय में-राजभ्याम् । यहां स्वादिष्वसर्वनामस्थाने' (१:४।१७) से पद-संज्ञः है। भिस्' प्रत्यय में-राजभिः। तस्य भावस्त्वतलौ' (५ /१ ११९) से तल्' प्रत्याय
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