Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः
. २६१ अहके, अद्विके। दो निन्दित नारी नहीं। (स्वा) स्वका, स्विका । अपनी अनुकिम्पत नारी। (नपूर्वा) अस्वका, अस्विका । अपनी अनुकम्पित नारी नहीं।
सिद्धि-(१) भस्त्रका । यहां 'भस्त्रा' शब्द से 'हस्वे' (५।३।८६) से ह्रस्व-अर्थ में 'क' प्रत्यय है। केण:' (७१४१३) से आकार को ह्रस्व होता है। तत्पश्चात् स्त्रीत्व-विवक्षा में 'अजाद्यतष्टाप्' (४१३१४) से 'या' प्रत्यय होता है। इस सूत्र से इस आकार के स्थान में विहित अकार के स्थान में उदीच्य आचार्यों के मत में इकारादेश नहीं होता है। पाणिनि मुनि के मंत में होता है-भस्त्रिका । ऐसे ही नञ्पूर्वक से-अभस्त्रका, अभस्त्रिका।
प्रागिवात् कः' (५ १३ १७०) से अज्ञात, कुत्सित, अनुकम्पा, अल्प, ह्रस्व आदि अर्थों में 'क' प्रत्यय का विधान किया गया है। तदनुसार एषका, एषिका आदि शब्दों के अर्थों की स्वयं ऊहा कर लेवें। इदादेश-प्रतिषेधः
(८) अभाषितपुंस्काच्च।।४८।। प०वि०-अभाषितपुंस्कात् ५।१ च अव्ययपदम् ।
स०-भाषित: पुमान् येन यस्मिन्नर्थे स भाषितस्कः , न भाषितपुंस्क: इति अभाषितपुंस्क:, तस्मात्-अभाषितपुंस्कात् (बहुव्रीहिगर्भितनञ्तत्पुरुषः)।
अनु०-अङ्गस्य, प्रत्ययस्थात्, कात्, पूर्वस्य, अत:, इद्, आपि, असुपः, न, उदीचाम्, आत:, स्थाने, नपूर्वाणाम्, अपि इति चानुवर्तते।
अन्वय:-अनपूर्वादपि अभाषितपुंस्कादऽङ्गाच्चाऽऽत: स्थानेऽत: प्रत्ययस्थात् कात् पूर्वस्य स्थाने आपि इद् न, असुपः, उदीचाम्।
अर्थ:-नपूर्वाद् अनपूर्वादपि अभाषितपुंस्काद् अमाच्च विहितस्याऽऽत: स्थाने योऽकारस्तस्य प्रत्ययस्थात् पूर्वस्य स्थाने, आपि प्रत्यये परत इकारादेशो न भवति, स चेद् आप सुप: परो न भवति, उदीचामाचार्याणां मतेन।
उदा०-खट्वका, खट्विका। (नपूर्व:) अखट्वका, अखट्विका । परमखट्वका, परमखट्विका।
आर्यभाषा अर्थ-(अनञ्पूर्वादपि) नञ् से पूर्व और अनञ् से पूर्व (अभाषितपुंस्कात्) जिसने पुंलिङ्ग को नहीं कहा है उस (अङ्गात्) अङ्ग से विहित (आत:) आकार से स्थान में जो (अत:) अकारादेश होता है उस (प्रत्ययस्थात्) प्रत्यय में अवस्थित (कात्)
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