Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः
२२१ (न) नहीं होती है (तु) अपितु (तस्मात्) उस (यात्) यकार से (पूर्वम्) पूर्व (एच) ऐच् आगम होता है।
उदा०-नैयग्रोधश्चमस: । न्यग्रोध (बरगद-बड़) की लकड़ी का बना हुआ यज्ञिय
चमस।
सिद्धि-नैयग्रोधः । यहां न्यग्रोध' शब्द से 'अनुदात्तादेर (४।२।४४) से विकार-अर्थ में 'अञ्' प्रत्यय है। इस सूत्र से न्यग्रोध' शब्द के आदिम अच् (अ) को वृद्धि का प्रतिषेध होकर इसके यकार के पूर्व ऐच् (ए) आगम होता है।
विशेष: न्यग्रोध' शब्द में यकार है; वकार नहीं। अत: सम्भवप्रमाण के बल से 'वाभ्याम्' इस पद में से यकार की अनुवृत्ति की जाती है, वकार की नहीं। उक्तप्रतिषेधः
(६) न कर्मव्यतिहारे।६। प०वि०-न अव्ययपदम्, कर्मव्यतिहारे ७।१।
स०-कर्मणो व्यतिहार इति कर्मव्यतिहार:, तस्मिन्-कर्मव्यतिहारे (षष्ठीतत्पुरुष:)। कर्म=क्रिया, व्यतिहार:=परस्परं करणम् ।
अन्वय:-यदुक्तं कर्मव्यतिहारे. तन्न। अर्थ:-अस्मिन् प्रकरणे यदुक्तं कर्मव्यतिहारेऽर्थे तन्न भवति। उदा०-व्यावक्रोशी वर्तते । व्यावलेखी वर्तते । व्यावहासी वर्तते ।
आर्यभाषा: अर्थ-इस प्रकरण में जो विधान किया गया है वह (कर्मव्यतिहारे) कर्मव्यतिहार अर्थ में (न) नहीं होता है। किसी क्रिया का परस्पर करना कर्मव्यतिहार कहाता है।
उदा०-व्यावक्रोशी वर्तते। परस्पर आह्वान हो रहा है। व्यावलेखी वर्तते । परस्पर लेखन-कार्य चल रहा है। व्यावहासी वर्तते । परस्पर हास्य चल रहा है।
सिद्धि-व्यावक्रोशी। यहां वि-अव उपसर्ग पूर्वक क्रुश आहाने (भ्वा०प०) धातु से भाव तथा कर्मव्यतिहार अर्थ में ‘णच्' प्रत्यय है। तत्पश्चात् ‘णच: स्त्रियाम (५।४।१४) से स्वार्थ में तद्धित 'अञ्' प्रत्यय है। न वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वी तु ताभ्यामैच्' (७।३।३) से बुद्धि का प्रतिषेध और ऐच् आगम का विधान किया गया है। इस सूत्र से कर्मव्यतिहार अर्थ में यहां आदिम अच् को वृद्धि होती है और ऐच् आगम नहीं होता है। स्त्रीत्व-विवक्षा में 'टिड्ढाणञ्' (४।१।१५) से 'डी' प्रत्यय होता है।
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