Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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सप्तमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
१५३ करने पर 'अजादेर्द्वितीयस्य' (६।१।२) से अजादि अर्धि' के द्वितीय एकाच धिस' को द्वित्व, हलादि: शेष:' (७।४।६०) से आदि हल् का शेषत्व (धि) होता है। न न्द्रा: संयोगादयः' (६।१३) से संयोगादि रेफ को द्वित्व नहीं होता है। 'अभ्यासे चर्च (८।४।५४) से अभ्यासस्थ धकार को जश् दकार होता है।
(४) ईर्त्यति । ऋध्+सन्। ऋध्+स। ऋध्स। ऋ+ध्स्-धस। ऋ+ध्-ध्स । ऋ+द-ध्स । ऋ+दि-ध्स । ई+o+स् । ई+त्स। ईस। ईर्ल्स+लट् । ईसति ।
यहां 'ऋधु वृद्धौ' (दि०प०) धातु से पूर्ववत् ‘सन्' प्रत्यय है। 'अजादेर्द्वितीयस्य (६।१।२) से द्वितीय एकाच अवयव (ध्स) को द्वित्व, हलादि: शेषः' (७।४।६०) से आदि हल का शेषत्व, 'अभ्यासे चर्च (८।४।५४) से अभ्यासस्थ धकार को जश् दकार होता है। सन्यतः' (७।४।७९) से अभ्यास को इत्व (दि), 'आप्नप्यधामीत् (७।४।५५) से ईत्त्व और उरण रपरः' (११५१) से रपरत्व, अत्र लोपोऽभ्यासस्य (७।४।५८) से अभ्यास का लोप और खरि च' (८।४।५५) से से धकार को चर् तकार होता है।
(५) बिभ्रज्जिषति । यहां 'भ्रस्ज पाके' (तु०उ०) धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे इडागम होता है। 'झलां जश् झशि' (८।४।५३) से सकार को जश् दकार और 'स्तो: श्चुना श्चुः' (८।४।४०) से दकार को चवर्ग जकार होता है। विकल्प-पक्ष में इडागम नहीं है-बिभ्रक्षति । बिभजिषति में 'भ्रस्जो रोपधयो रमन्यतरस्याम् (६।४।४७) से 'भ्रस्ज्' के रेफ और उपधाभूत सकार के स्थान में रम्' आगम है। बिभर्भति-में विकलप-पक्ष में इडागम नहीं है। पूर्ववत् 'रम्' आगम रेफ और उपधाभूत सकार की निवृत्ति होकर 'चो: कुः' (८।२।३०) से जकार को कुत्व गकार और खरि च' (८।४।५५) से गकार को चर् ककार और 'आदेशप्रत्यययोः' (८।३।५९) से षत्व होता है।
(६) दिदम्भिषति । यहां दम्भु दम्भे (स्वा०प०) धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे इडागम होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(७) धिप्सति । दम्भ+सन्। दभ्+स । दभ्स । दभ्स्-दभ्स । ०-दभ्स । धभ्स । धिप्स ।। धिप्स+लट् । धिप्सति ।। धीप्सति।
यहां दम्भु दम्भे (स्वा०प०) धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय है। विकल्प-पक्ष में इडागम नहीं है। पूर्ववत् अभ्यास का लोप, 'एकाचो बशो भष्०' (८।२।३७) से दकार को भष धकार, 'खरि च' (८।४।५५) से भकार को चर् षकार होता है। हलन्ताच्च (१।२।१०) से 'सन्' के किद्वत् होने से 'अनिदितां हल उपधाया: क्डिति (६।४।२४) से अनुनासिक (न्) का लोप होता है। दम्भ इच्च' (७।४।५६) से इत्त्व और ईत्व भी होता है-धीप्सति।
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