Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(कृ०श्रुव:) कृ, स, , वृ, स्तु, दु, सु, श्रु इन (अङ्गेभ्य:) अगों से परे (लिट:) लिट् प्रत्यय को (इट्) इडागम (न) नहीं होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है।
सिद्धि-(१) चकृव । कृ+लिट् । कृ+ल। कृ+वस् । कृ+व। कृ+व। कृ-कृ+व। कर-कृ+व। क-कृ+व । च-कृ+व। चकृव।
यहां डुकृञ् करणे (तना०उ०) धातु से 'परोक्षे लिट्' (३।२।११५) से 'लिट्' प्रत्यय, तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से ल' के स्थान में वस् आदेश, 'परस्मैपदानां णलत्सस०' (३।४।८२) से पस् के स्थान में 'व' आदेश होता है। इस सूत्र से इस लिट (व) प्रत्यय को इट् आगम का प्रतिषेध होता है। ऐसे ही मस् (म) प्रत्यय में-चकृम ।
उरत्' (७।४।६६) से अभ्यास-ऋकार को अकार और 'कुहोश्चुः' (७।४।६२) से अभ्यास-ककार को चकार आदेश होता है।
(२) ससृव, ससृम । 'सृ गतौ' (भ्वा०प०) पूर्ववत् । (३) बभृव, बभृम । 'डुभृन धारणपोषणयोः' (जु०उ०) । (४) ववृव, ववृम। वृञ् वरणे (स्वा०प०)। (५) ववृवहे, ववृमहे । वृङ् सम्भक्तौ (क्रया०आ०)। (६) तुष्टुव, तुष्टुम । 'ष्टुझ स्तुतौ' (अदा०3०)। (७) दुइव, दुद्रुम । द्रु गतौ' (भ्वा०प०) । (८) सुनुव, सुनुम। 'त्रु गतौ' (भ्वा०प०) । (९) शुश्रुव, शुश्रुम। 'श्रु श्रवणे' (भ्वा०प०) ।
इट्-प्रतिषेधः
(७) श्वीदितो निष्ठायाम्।१४। प०वि०-श्वि-इदित: ५।१ निष्ठायाम् ७।१।
स०-ईद् इद् यस्य स ईदित्, शिवश्च ईदिच्च एतयो: समाहार: श्वीदित्, तस्मात्-श्वीदितः (बहुव्रीहिगर्भितसमाहारद्वन्द्वः) ।
अनु०-अङ्गस्य, न, इड् इति चानुवर्तते। अन्वय:-श्वीदितोऽङ्गान्निष्ठाया इड् न ।
अर्थ:-श्विरित्येतस्माद् ईदितश्चाङ्गाद् उत्तरस्या निष्ठाया इडागमो न भवति ।
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