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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तुत्व टाट प्रादि से शरीर ढक लेना चाहिए और फिर चर्या के बाद उस चटाई आदि को छोड़ देना चाहिए । यह अपवाद वेष है ।'
मूलसंघ की गुर्वावली में चित्तौड़ की गद्दी के भट्टारकों के जो नाम दिये हैं उनमें वसन्तकीर्ति का नाम आता है जो वि० सं० १२६४ के लगभग हुये हैं । उस समय उस ओर मुसलमानों का आतंक भी बढ़ रहा था। इन्हीं को श्रुतसागर ने अपवाद भेए का प्रवर्तक बतलाया है।
इससे यह प्रतीत होता है कि तेरहवीं शती के अन्त में दिगम्बर साधु बाहर निकलते समय उपद्रवों के डर से चढाई श्रादि का उपयोग करने लगे थे।
'परमात्मप्रकाश' की संस्कृत टीका में योगीन्दुदेव शक्ति के प्रभाव में साधु को तृणमय आवरणादि रखने परन्तु उस पर ममत्व न रखने की बात करते हैं 13
वि० सं० १२९४ में श्वेताम्बर प्राचार्य महेन्द्र सूरि ने 'शतपदी' नामक ग्रंथ बनाया जो १२६३ में बनी धर्मघोष की 'प्राकृत शतपदी' का अनुवाद है। वे उसके 'दिगम्बर मत विचार' वाले प्रकरण में लिखते हैं - .
___ "यदि तुम दिगम्बर हो तो फिर सादड़ी और योगपट्ट५ क्यों ग्रहण करते हो ? यदि कहो पंचमकाल होने से और लज्जा परीपह १ (क) कोऽपवाद वेष : ? कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्टबोपद्भवं यतीनो
कुर्वन्ति तेन मण्डपदुर्ग श्रीबसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां लट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाध चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुंचतीत्यु
पदेशः कृतः संयमिना, इत्यपदादवेषः। - पटनाभृत टीका, २१ (ख) भ० सं०, लेखांक २२५ २ जैन हितैषी भाग ६, ग्रंक ७-८ 3 विशिष्टसंहननादिशक्त्यभावे सति यद्यपि तपःपर्यायणरीरसहकारिभूतमन्न
पानसंयमशौचज्ञानोपकरपतृणमयप्रावरणादिकं किमपि गृह्णाति तथापि ममत्वं न करोतीति ।
__ -प० प्र०, २०६ ४ घास या ताड़ खजूर के पत्तों से बनी हुई चटाई को सादड़ी कहते हैं । ५ योगपट्र रेशमी कपड़ा रंगा कर बनाया जाता था।