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भाषा
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के - प्रात्मा के बाह्य सामग्री का सम्बन्ध बने है । कैं- (१) बहुरि जिन के प्रतिपक्षी कर्मनिका प्रभाव भया । (२) संशयादि होते कि जो न कीजिए ग्रंथ,
तो छद्मस्थनि के मिटं ग्रंथ करन को पंथ । (३) जी कषाय उपजाय के धरै अर्थ विपरीत,
तो पापी है आप ही आज्ञा भंग अभीत । को - करि मंगल करि हौं महाग्रंथ करन को काज । कौं - (१) या कौं अवगाहें भव्य पावें भवपार हैं ।
(२) इनकी संदृष्टिनि कौं लिखिकै स्वरूप 1 को - (१) समकित उपशम क्षायिक को है बखान ।
(२) सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका धरौ है या को नाम । (३) लग्यो है अनादि ते कलंक कर्ममल को।
ताही को निमित्त पाय रागादिक भाव भये ।
भयो शरीर को मिलाप जैसे खल को ।। अधिकरण
अधिकरण कारक में 'वि' विभक्ति का बहुत प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त 'इ, में' के भी प्रयोग मिलते हैं :विर्षे - (१) त्रिलोक विर्षे जे अकृत्रिम जिनबिंब बिराजे हैं। (२) पांच ग्रामनि विर्षे जावो परन्तु एक दिन विखें एक ही
नाम को जावो। (३) एक भेद घिर्ष भी एक विषय विषं ही प्रवृत्ति हो है। (४) मुनिधर्म विर्षे ऐसी कपाय संभव नाहीं । (५) लोक विषं भी स्त्री का अनुरागी स्त्री का चित्र बनाते है । (६) जैनश्रुत विवं यह अधिकरण प्रमानिए ।
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