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उपसंहार : उपलब्धियों और मूल्यांकन
३२७ क्रियापदों में धातु का मूल रूप संस्कृत की साध्यमान धातु से लिया गया है । संस्कृत शब्दों से क्रिया बनाने की प्रवृत्ति बहुत व्यापक है। इसके अतिरिक्त अपभ्रंश परम्परा और देगी धातुओं का भी प्रयोग है तथा वर्तमान व भविष्य में तिगंतक्रिया का प्रयोग है। भविष्य में 'गा, गे, गी' वाले रूप भी हैं । पूर्वकालिक क्रिया में 'करि, आय' का प्रयोग है। ___इस प्रकार उनकी भाषा ब्रजभाषा है, लेकिन उसमें संस्कृत का अनुसरण है और देशी भाषा का भी पुट है। साथ ही खड़ी बोली के कतिपय रूप भी मिलते हैं । उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा मजी और निखरी हुई है। ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पंडित टोडरमल न केवल टीकाकार ही थे बल्कि अध्यात्म के मौलिक विचारक भी थे। उनका यह चिन्तन समाज की तत्कालीन परिस्थितियों और बढ़ते हुए आध्यात्मिक शिथिलाचार के सन्दर्भ में एकदम सटीक है । वे यह अच्छी तरह समझ चुके थे कि बेलाग और मौलिवा चितन के भार को पद्य के बजाय गद्य ही वहन कर सकता है ।
वे विशुद्ध प्रात्मवादी विचारक थे । उन्होंने उन सभी विचारधारानों और धारणाओं पर तीखा प्रहार किया जो
आध्यात्मिकता के विपरीत थीं। प्राचार्य कुन्दकुन्द के समय जो विशुद्ध प्राध्यात्मवादी आन्दोलन की लहर उठी थी, वे उसके अपने युग के सर्वोत्तम व्याख्याकार थे । केवल रचना परिमाण की दृष्टि से पिछले एक हजार वर्षों में हिन्दी साहित्य में इतने विशाल दार्शनिक गद्य का इतना बड़ा रचनाकार नहीं हुया । प्राध्यात्मिकता के प्रति उनकी रुचि और निष्ठा का सब से बड़ा प्रमाण यह है कि उन्होंने लगभग एक लाख श्लोक प्रमाण मद्य लिखा ।
सादगी, अध्यात्म-चिंतन, लेखन और स्वाभिमान उनके व्यक्तित्व की सब से बड़ी विशेषताएँ हैं । वे अपने युग की जैन प्राध्यात्मिक विचारधाराओं के ज्योति-स्तम्भ थे। वे एक वृहत्तर ग्रंथ लिखना चाहते थे – 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' उसी का एक अंश है । दुर्भाग्यवश वे