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उपसंहार : उपलब्धियां और मूल्यांकन
३२५ अत: उपलब्ध जैन गद्यकारों में पंडित टोडरमल ही ब्रजभाषा गद्य के श्रेष्ठ गद्य-लेखक ठहरते हैं।
__ प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ब्रजभाषा के जिन गद्यकारों की भाषा के आधार पर अपना उक्त मत व्यक्त किया है, वह प्रांशिक रूप से ही सत्य माना जा सकता है, क्योंकि 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में प्रयुक्त परिष्कृत और सुव्यवस्थित ब्रजभाषा गद्य का पूर्ण विकास टोडरमलजी के गद्य में देखा जा सकता है, अतः उसकी परम्परा . वहीं समाप्त नहीं हो जाती। टोडरमलजी ने वार्ताकार के रूप में नहीं, दार्शनिक चिंतक के रूप में उसे अपनी अभिव्यक्ति के समर्थ माध्यम के रूप में प्रयोग किया है । अतः प्राचार्य शुक्ल का यह कथन तर्कसंगत नहीं माना जा सकता कि ब्रज के गद्य के विकास या उसके गद्य-साहित्य के खड़े न होने से खड़ी बोली को गद्य के माध्यम के रूप में निःसंकोच रूप से स्वीकार कर लिया गय।। टोडरमल के गद्य के साक्ष्य पर यह कहा जा सकता है कि ब्रजभाषा का गद्य और गद्यसाहित्य दोनों ही पूर्ण रूप से समृद्ध थे, फिर भी खड़ी बोली के गद्य के निविरोध स्वीकार किए जाने का कारण ऐतिहासिक था, ब्रजभाषा गद्य
और गद्य-साहित्य के होने न होने से उसके विकास का कोई सम्बन्ध नहीं था। हाँ, ब्रजभाषा का गद्य में उतना एकाधिकार नहीं था, जितना कि पद्य में। गद्य में उसका विषय सीमित था। अतः हम प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमल को इस रूप में ब्रजभाषा का एक समर्थ एवं मौलिक गद्यकार स्वीकार कर सकते हैं।
जहाँ तक पंडितजी की भाषा का प्रश्न है, टीकारों की भाषा परम्परागत और संस्कृतनिष्ठ है । मूल ग्रन्थ की अनुगामी होने से अनुवाद की भाषा को अध्ययन का प्राधार नहीं बनाया जा सकता। मोक्षमार्ग प्रकाशक की भाषा उनकी प्रतिनिधि भापा है । 'सिद्धोवर्णः समाम्नायः' कह कर उन्होंने भाषा के विकास के सम्बन्ध में अपने विचार प्रगट नहीं किए। यह उनका विषय भी नहीं था । वह अपनी भाषा को देशभाषा अवश्य कहते हैं, पर वस्तुत: वह उनके समय की प्रचलित साहित्यभाषा थी। वे यह भी कहते हैं कि उनकी देशी