Book Title: Pandita Todarmal Vyaktitva aur Krititva
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 351
________________ उपसंहार : उपलग्घियां प्रौर मूल्यांकन जोगद्वारकरि अपने स्वरूपको ध्यान बिचाररूप क्रिया करतु है ता कार्य करतौ मिश्र व्यवहारी कहिए। केवलज्ञानी यथाख्यात चारित्र के बलकरि शुद्धात्मस्वरूप को रमनशील है तातें शुद्ध व्यवहारी कहिए, जोगारूह अवस्था विद्यमान है तातै व्यवहारी नाम कहिए । शुद्ध व्यवहार की सरहद त्रयोदशम गुणस्थानक सौं लेइ करि चतुर्दशम गुणस्थानक पर्यंत जाननी । प्रसिद्धत्व परिगमनत्वात् व्यवहार : । इन बातनको ब्यौरो ई लिरिक वा माहित । वचनातीत, इन्द्रियातीत, ज्ञानातीत तात यह विचार वहुत कहा लिखहिं । जोग्याता होइगो सो थोरो ही लिख्या बहुत करि समझेगो, जो प्रग्यानी होइगो सो यह चिट्ठी सुनंगो सही परन्तु समुझमो नहीं । यह वचनिका यथा का यथा सुमति प्रवांन केवली वचनानुसारी है। जो याहि सूनगो समुझेपो सरदहेगो ताहि कल्याणकारी है भाग्यप्रमाण' ।" इसके बाद विक्रम की अठारवीं शती के उत्तरार्द्ध में रचित पंडित दीपचन्दजी की रचनाएं आती हैं। उनकी भाषा का नमूना इस प्रकार है : “जसे बानर एक कांकरा के पड़े रोवे तसे याके देह का एक अंग भी छीजं तो बहुतेरा रोवं । ये मेरे और मैं इनका झूठ ही ऐसे जड़न के सेवन से सुख मानै । अपनी शिवनगरी का राज्य भूल्या, जो श्रीगुरु के कहे शिवपुरी की संभाले, तो वहाँ का आप चेतन राजा अविनाशी राज्य करें।" उपर्युक्त उद्धरणों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्वतः प्रमाणित है कि पंडित टोडरमल के गद्य की भाषा की प्रकृति और प्रवृत्ति परम्परागत अज की ही है । लेकिन उनकी देन यह है कि उन्होंने इस भाषा को अपने दार्शनिक चितन का धारावाहिक माध्यम बना कर उसको पूर्णत: सशक्त किया । जहाँ तक गोरखपंथी गद्य का प्रश्न है, उसकी ऐतिहासिकता और लेखक की प्रामाणिकता संदिग्ध है। 'प्र० का भूमिका, ७८ १ हि सा०, द्वि० ख०, ४६५

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