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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्पस्व 'होइ' का प्रयोग भी बहुतायत से मिलता है । जैसे – “प्रायु पूर्ण भए तो अनेक उपाय कर है, अनेक सहाई होई तो भी मरन होइ ही होइ । एक समय मात्र भी न जीवै । पर यावत् आयु पूरी न होइ तावत् अनेक कारण मिलौ, सर्वथा मरन न होई । तातै उपाय किए मरन मिटता नाहीं । बहुरि प्रायु को स्थिति पूर्ण होइ हो होइ तातें मरन भो होइ ही होइ....!"
'होसी' का प्रयोग भी मिलता है। जैसे - 'जो इनका प्रयोजन पाप न बिचारै, तब तो सूवा का सा ही पढ़ना भया । बहरि जो इनका प्रयोजन विचार है, तहाँ पाप की बुरा जानना, पुन्य की भला जानना, मुगास्थानादिक का स्वरूप जानि लेना, इनका अभ्यास करेंगे, तितना हमारा भला है, इत्यादि प्रयोजन विचारया सो इसतें इतना तौ होसी-- नरकादि न होसी स्वर्गादिक होमी परन्तु मोक्षमार्ग की तो प्राप्ति होय नाही ।"
एक ही क्रिया के अनेक प्रकार के रूप देखने में आते हैं। जैसे'कर' के वर्तमान काल में ही 'करिये है, कीजिए है, करें हैं रूप मिलते हैं।
ब्रजभाषा की मृदुता सर्वत्र विद्यमान है। कठोर वर्गों के स्थान पर मृदु वणों का प्रयोग हुआ है। 'ड' के स्थान पर 'र' का प्रयोग मिलता है। जैसे - लडिएलरिए, लड़नेलरने, छोड़<छोरि, फोड़े फोरे, पकड़े पकरे, थोड़ा थोरा।
इस प्रकार पंडितजी की भाषा तत्कालीन जयपुर राज्य और पार्श्ववर्ती क्षेत्र में प्रयुक्त साहित्यभाषा ब्रज है किन्तु उसमें खड़ी बोली के रूप भी मिलते हैं तथा स्थानीय पुट भी विद्यमान है। उन्होंने अपनी भाषा को जो देशभाषा कहा है वह उक्त अर्थ में ही है, ढूंढाड़ी के अर्थ में नहीं । देशभाषा कह कर उन्होंने प्रान्त का बोध न करा के संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश से भिन्नता का बोध कराया है। उनकी भाषा परिमार्जित, सरल एवं सुबोध है।
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. मो. मा. प्र. ८८ ३ वही, ३४७