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रचनाप्नों का परिचयात्मक अनुशीलन
१३३ गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषाटीका आदि। अत: इस दीका का नाम भी 'पात्मानुशासन भाषाटीका' ही उन्हें अभीष्ट था । परवर्ती सभी विद्वानों ने इसी नाम का प्रयोग किया है। समाज में भी यही नाम प्रचलित है। हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों में भी 'भाघाटीका' शब्द का ही प्रयोग हुआ है।
प्रात्मानुशासन ग्रन्थ के कर्ता प्राचार्य गुरणभद्र (नवीं शताब्दी) हैं जो महापुराण के कर्ता भगवज्जिनसेनाचार्य के शिष्य हैं तथा जिन्होंने अपने गुरु के आकस्मिक निधन के पश्चात् अधुरे महापुराण को पूर्ण किया। गुणभद्राचार्य ने इस बैराग्योत्पादक ग्रन्थ की रचना अपने विषय-विमोहित गुरुभाई लोकसेन मुनि के संबोधनार्थ की थी, जैसा कि इसकी संस्कृत टीका और हिन्दी टीका के प्रारम्भ में क्रमशः प्राचार्य प्रभाचन्द्र और पंडित टोडरमल ने लिखा है।
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श्री दि० जैन बड़ा मंदिर, जयपुर एवं श्री दि. जैन मंदिर प्रादर्शनगर, जयपुर में प्राप्त प्रतियाँ । १ (क) जैनेन्द्र सिद्धान्त शब्दकोष, २५५ (ख) सोहे जिनशासन में प्रात्मानुशासन श्रुत,
जाकी दुःखहारी सुखकारी सांची शासना । जाको मुगभद्र करता, गुणभद्र जाकी जानि, भव्य गुणधारी भव्य करत उपासना ।।
___-या. भा० टी०, मंगलाचरण ३ "बृहदश्रमभ्रातुकिसेनस्य विपयव्यामुग्घबुद्धेः संबोधनव्यानसर्वसत्वोपकारक
सम्मानमुपदर्शवितुंकामो गुणभद्रदेवो निविघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिक फलमभिलषन्निष्टदेवज्ञाविशेषं नमस्कुगियो लक्ष्मीत्याचाह"।
- आत्मानुभासन, १ ४ "अथ श्री गुणभद्र नामा मुनि अपना धर्मभाई लोकसेन मुनि विषय विमोहित
भया ताका संवोधन तिस करि सर्व जीवनिकों उपकारी जो भला मार्ग ताका उपदेश देने का अभिलाणी होत संता निर्विघ्न शास्त्र की सम्पूर्गाता आदि अनेफ फलकी बांछा करता हुया प्रगने इष्टदेव को नमस्कार करता संता प्रथम ही लक्ष्मी इत्यादि सूत्र कहे हैं।"
- प्रा. भा. टी. १