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पंडित टोडरमल : व्यक्तिस्थ और कर्तृत्व ते शास्त्र नाही शस्त्र हैं । जातें जिन राग-द्वेष-मोह भावनि करि जीव अनादित दुःखी भया तिनकी बासना जीव के बिना सिखाई ही थी । बहुरि इन शास्त्रनि करि तिनही का पोषण किया, भले होने को कहा शिक्षा दीनी । जीव का स्वभाव घात ही किया तात ऐसे शास्त्रनि का वौचना सुनना उचित नाहीं है । इहाँ वाँचना सुनना जैसे कह्या तैसे ही जोड़ना सीखना सिखावना लिखना लिखावना आदि कार्य भी उपलक्षण करि जान लेने । ऐसे साक्षात् वा परम्परा करि वीतराग भाव कौं पोषं ऐसे शास्त्र ही का अभ्यास करने योग्य है।"
जिनमें वस्तु स्वरूप का सच्चा वर्णन हो, जो वीतराग भाव के पोषक हो, जो प्रारम सान्ति का मार्ग दिखात हो, जिनमें व्यर्थ की राग-द्वेषवर्धक बातें न हों, जिनसे सच्चा सुख प्राप्त करने का प्रयोजन सिद्ध होता हो, वे ऐसे शास्त्रों के पड़ने-पढ़ाने की प्रेरणा देते हैं ।
अप्रयोजनभूत शास्त्रों के पढ़ने के पंडितजी विरोधी नहीं हैं क्योंकि उनके जानने से तत्त्वज्ञान विशेष निर्मल होता है और ये भी पागामी रागादि भाव के घटाने वाले हैं, पर उनकी शर्त यह है कि वे राग-द्वेष के पोषक न हों। शास्त्रों के इस कथन का कि 'प्रयोजनभूत थोड़ा जानना ही कार्यकारी है' - प्राशय स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि यह कथन उस व्यक्ति की अपेक्षा है जिसमें बुद्धि कम है और जिसके पास समय कम है। यदि कोई शक्तिसम्पन्न है, वह बहुशास्त्रविद् भी हो सकता है। बहुशास्त्रज्ञता प्रयोजनभूत ज्ञान को अधिक स्पष्ट और विशद् करती है। वे स्वयं बहुशास्त्रविद् थे । इस सम्बन्ध में उनके विचार एकदम स्पष्ट हैं :__"सामान्य जाननेते विशेष जानना बलवान है। ज्यों-ज्यों विशेष जाने त्यों-त्यौं वस्तु स्वभाव निर्मल भासै, श्रद्धान हृढ़ होय, रागादि घट, तातें तिस प्रम्यास विर्षे प्रवर्तना योग्य है ।"
' मो० मा० प्र०, २१-२२ २ वही, २६७ 3 देखिए प्रस्तुत ग्रन्थ, ६२-६३ ४ मो० मा०प्र०, ४३२