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वयं विषय और दार्शनिक विश्वार
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इसी प्रकार शास्त्रों में तप को निर्जरा का कारण कहा है और अनशनादि को तप कहा है । व्यवहाराभासी जीव अनशन यदि तपों का सही स्वरूप तो जानता नहीं है और अपनी कल्पनानुसार उपवासादि करके तप मान लेता है। इस बात को पंडितजी ने इस प्रकार स्पष्ट किया है :
"बहुरि यहु अनशनादि तपते निर्जरा मानें है । सो केवल बाह्य सप ही तौ किए निर्जरा होय नाहीं । वाह्यतप तो शुद्धोपयोग बधावनै के ग्राथ कीजिए है। शुद्धोपयोग निर्जराका कारण है । तानें उपचार करि तपकों भी निर्जरा का कारण कया है । जो बाह्य दुःख सहना ही निर्जरा का कारण होय, तौ तिर्यंचादि भी भूख तृषादि सहैं हैं ।"
"शास्त्रविषै 'इच्छाविरोधस्तपः' ऐसा कह्या है। इच्छा का रोकना ताका नाम तप है । सो शुभ-अशुभ इच्छा मिटै उपयोग शुद्ध होय, तहाँ निजेश ही है | नाते तपकार निर्जरा कहते है ।"
"यहाँ प्रश्न जो ऐसे है तो अनशनादिकक तप संज्ञा कैसे भई ? ताका समाधान इनिकों बाह्यतप कहें हैं । सो बाह्य का अर्थ यह है जो बाह्य श्रीरनिकों दीमै बहु तपस्त्री है । बहूरि आप तो फल जैसा अंतरंग परिणाम होगा, वैसा ही गावेगा । जातें परिणामशून्य शरीर की क्रिया फलदाता नाहीं ।"
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"यहाँ कहेगा- जो ऐसे है तो हम उपवासादि न करेंगे ?
ताको कहिए है - उपदेश तो ऊँचा चढनेक दीजिए है। तु उलटा नीचा पड़ेगा, तो हम कहा करेंगे। जो तु मानादिकने उपवासादि करे है, ती करि बामति करें; किल्लू सिद्धि नाहीं । पर जो धर्मबुद्धि ग्राहारादिकका अनुराग छोड़े है, तो जता राग छूया तैना ही छुट्या । परन्तु इसहीकों तप जानि इस निर्जरामानि सन्तुष्ट मति होहु ।"
' मो० मा० प्र०, ३३७
२ वही ३३८
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वही, ३३६ वही, २४०