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भाषा
पंडित टोडरमल द्वारा प्रयुक्त भाषा के सम्बन्ध में विचार करते समय उसके दो रूप देखने को मिलते हैं :
(१) मौलिक लेखन की भाषा
(२) अनूदित ग्रन्थों की भाषा उन्होंने परम्परागत दार्शनिक और सैद्धान्तिक ग्रन्थों का हिन्दी भाषा में रूपान्तर किया जो अधिकतर प्राकृत और संस्कृत भाषा में हैं। इन मूल ग्रन्थों में से किन्हीं-किन्हीं पर संस्कृत टीकाएँ मिलती हैं । ये अनुवाद उन्हीं पर आधारित हैं। अनुवाद केबल अनुवाद ही नहीं अपितु उनमें अनुवाद के साथ मौलिक चिन्तन भी है, जिसमें वे एक स्वतंत्र विचारक के रूप में उभरते दिखाई देते हैं।
इन्हीं मौलिक विचारों और मान्यताओं को उन्होंने स्वतंत्र ग्रन्थों के रूप में ग्रंथित कर दिया है, जिन्हें हम उनकी मौलिक रचनाएँ मान सकते हैं। जहाँ तक अनुवाद की भाषा का प्रश्न है, उसके मूल भाषा पर आधारित होने से लेखक की मौलिक भाषा नहीं मानी जा सकती। अधिक से अधिक यही माना जा सत्रता है कि उन्होंने लोकप्रयुक्त भाषा में उसका अनुवाद किया है। त्रिलोकसार भाषादीका की भूमिका (पीठिका) के प्रारंभ में उन्होंने अपनी टीका की भाषा को लौकिक बोलचाल की भाषा बताया है। वे लिखते हैं :
"इस शास्त्र की संस्कृत टीका पूर्व भई है तथापि तहाँ संस्कृत गणितादिक के ज्ञान बिना प्रवेश होई सकता नाहीं । तातै स्तोक ज्ञान वालों के त्रिलोक के स्वरूप का ज्ञान होने के अथि तिसही अर्थ कौं भाषा करि लिखिए है। या वि मेरा कत्र्तव्य इतना ही है जो क्षयोपशम के अनुसारि तिस शास्त्र का अर्थ कौं जानि धर्मानुराग तें औरनि के