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भाषा
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स्थिति प्रत्येक भापा में अपरिवर्तनशील है, क्योंकि उनका सम्बन्ध वाक्यों में प्रयुक्त पदों की विवक्षा से है। हाँ, इस विवक्षा को बताने वाली भाषाई व्यवस्था में विनिमय या परिवर्तन संभव है। उदाहरण के लिए जब हम कहते हैं कि संस्कृत के बाद प्राकृत-अपभ्रंश में कर्ता. कर्म और सम्बन्ध की विभक्तियों का लोप हो गया तो इसका अर्थ वह नहीं है कि इन कारकों का लोप हो गया, कारक नो ज्यों के त्यों हूँ, हाँ, उनकी सूत्रक विभक्तियां या प्रत्ययों का लोप हो गया अर्थात् चिना भाषा सम्बन्धी प्रत्ययों के ही उनके कारक तत्त्व का प्रत्यय (ज्ञान) हो जाता है ।
पालोच्य साहित्य में नीचे लिखे अनुसार कारक चिह्नों और विभक्तियों के प्रयोग मिलते हैं :फर्ता
कर्ता कारक में विभक्ति का प्रायः लोप मिलता है। जैसे :(१) जीव नवीन शरीर धरे है । (२) राजा और रंक मनुष्यपने की अपेक्षा समान हैं । (३) जे केवल ज्ञानादि रूप प्रात्मा को अनुभव हैं, ते मिथ्यादृष्टि हैं । (४) वैद्य रोग मेट्या चाहै है। (५) मैं सिद्ध समान शुद्ध हूँ। (६) वह तपश्चरण को वृथा क्लेश ठहराव है । (७) तुम कोई विशेष ग्रंथ जाने हों तो मुझ को लिख भेजना। (८) तुम प्रश्न लिखे तिसके उत्तर अपनी बुद्धि अनुसार लिखिए है । (६) तुम तीन दृष्टान्त लिखे । (१०) जिहि जीय प्रसन्न चित्त करि इस चेतन स्वरूप प्रात्मा को
बात भी सुनी है, सो निश्चय करि भव्य है। (११) बहुरि त कह्या सो सत्य..!