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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्त्तव
जानने के अभि जैसे कोऊ मुखतें प्रक्षर उच्चारि करि देशभाषारूप व्याख्यान करे है जैसे मैं हस्ततं क्षरनि की स्थापना करि लिखौंगा।"
पंडित टोडरमल ने अपने लेखन में प्रयुक्त भाषा के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहीं कुछ भी नहीं लिखा । फिर भी प्रसंगवश कहीं कहीं ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनसे उनके भाषा सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश पड़ता है । भाषा के सम्बन्ध में उनका कथन है :
"इस निष्ट समय विषै हम सारिखे मंदबुद्धीनितें भी हीन बुद्धि के धनी घने जन अवलोकिए हैं । तिनिकों तिन पदर्शन का अर्थज्ञान होने के अर्थ धर्मानुराग के वशतें देशभाषामय ग्रन्थ करने की हमारे इच्छा भई, ताकरि हम यहु ग्रन्थ बनायें हैं । सो इस विषै भी अर्थ सहित तिनिही पदन का प्रकाशन हो है । इतना तो विशेष है जैसे प्राकृत संस्कृत शास्त्रनिविषै प्राकृत संस्कृत पद लिखिए हैं, तैसे इहाँ अपभ्रंश लिए वा यथार्थपनाको लिएं देशभाषारूप पद लिखिए हैं परन्तु अर्थ विषै व्यभिचार किछु नाहीं है ।"
इस कथन से सिद्ध है कि पंडितजी ने यद्यपि धर्मानुराग से देशभाषा में अपने ग्रन्थों की रचना की है, फिर भी उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि देशी भाषा उनकी है, जबकि चरिणत विषय और उसकी प्रतिपादन शैली बहुत कुछ परम्परागत है । उनका यह भी कहना है कि जिस प्रकार प्राकृत और संस्कृत शास्त्रों में प्राकृत व संस्कृत पद लिखे जाते हैं, उसी प्रकार इस ग्रंथ में देशभाषारूप पदों की रचना की गई है, परन्तु यह देशी पद रचना अपभ्रंश और यथार्थ को लिए हुए है । यहाँ लेखक का अभिप्राय यह मालूम होता है कि वह जिस देशभाषा में लिख रहा है उसमें अपभ्रंश का पुट है लेकिन साथ ही वह यथार्थ का आधार लेकर भी चलती है । अर्थात् उनकी देशभाषा न ठेठ अपभ्रंश है, न ठेठ देशभाषा | सामान्यतया कुछ आलोचक उसे ढूंढारी (जयपुरी) भाषा कहते हैं, जबकि ब्र० रायमल ने सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की भाषा को
१ त्रि० भा० टी० भूमिका, १
२ मो० मा० प्र० १७
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9 वही प्रस्तावना, ४