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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कत्तृत्व और देशी शब्दों के अतिरिक्त उसमें उर्दू के भी शब्द मिलते हैं । तत्सम शब्दों की बहुलता का कारण मूल ग्रन्थों का संस्कृत प्राकृत में होना है। खखक अपनी अभिव्यक्ति को सुगम बनाने के लिए खुले रूप में तत्सम शब्दों का प्रयोग करता है। दूसरे वह तद्भव के नाम पर जिन शब्दों का प्रयोग करता है उनकी रचना-प्रक्रिया प्राकृत रचना-प्रक्रिया से मिलती-जुलती है। उनके गद्य साहित्य में तत्सम शब्दों की सा है गोमा साहिबदायक भी। इसका कारण काव्यभाषा ब्रज में तद्भव और देशी शब्दों के ही प्रयोग के विधान का अनिवार्य होना है । व्रजभाषा प्रकृति और छन्द की लय इन्हीं को अपनाने के पक्ष में है। पद्य में इसीलिए पंडितजी परम्परा से बंधे थे, परन्तु ब्रजभाषा में गद्य का अभाव था इसलिए उन्हें उसमें तत्सम शब्दों के प्रयोग में विसी प्रकार भी रुकावट नहीं थी। नगण्य होते हुए भी देशी शब्द भी उल्लेखनीय हैं क्योंकि वे उस समय बोले जाने वाले स्थानीय शब्द हैं । उनकी भाषा में प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के शब्दों के कुछ नमूने नीचे दिये जा रहे हैं. :संज्ञा शब्द (१) व्यक्तिवाचक :तत्सम - कृष्ण, बुद्ध, वर्द्धमान, शिव, मूलबद्री, काशी, जयपुर,
लक्ष्मी, सूर्य, भूतबलि, वृषभ, नेमिचंद्र, राजमल्ल,
चामुण्डराय, पंचसंग्रह। तद्भव - ऋषभ रिषभ, रामसिंह रामसिंघ, बर्द्धमान
वर्धमान, मूलबद्री मूलविद्रपुर, गिरनार गिरनारि,
जयपुर जैपुर, गोपाल गुवालिया। (२) जातिवाचक :तत्सम - वक्ता, श्रोता, थावक, वैद्य, ब्राह्मण, मुनि, राजा, नृप,
पुत्र, जीव, अजीब, मोक्ष, देव, शास्त्र, गुरु, मुख, नार्म, गुणस्थान, हस्त, पाद, जिह्वा, स्थान, प्राचार्य उपाध्याय, साधु, मनुष्य, द्वीप, लता, शर्करा, निंब,